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- ७८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
से मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि न केवल ऋषभनाथ बल्कि कई अन्य तीर्थंकरों की अवधारणा भी शिव से प्रभावित थी ।
अभिनन्दन के समान ही सुमतिनाथ की भी १०वीं शती ई० से पूर्व की एक भी मूर्ति नहीं मिली है । केवल खजुराहो एवं महोबा के दिगम्बर तथा कुंभारिया और आबू जैसे श्वेताम्बर स्थलों से सुमतिनाथ की मूर्तियाँ मिली हैं । इनमें या तो पारम्परिक लांछन क्रौञ्च पक्षी उत्कीर्ण है या पीठिका लेख में तीर्थंकर का नाम दिया है । किन्तु पारम्परिक यक्ष यक्षी तुम्बरु ( या महाकाली या नरदत्ता) का अंकन नहीं किया गया है । १४८ दक्षिण भारत और यहाँ तक कि एलोरा में भी सुमतिनाथ की एक भी मूर्ति नहीं बनी ।
(६) पदमप्रभ :
छठें तीर्थंकर पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी नगरी के इक्ष्वाकुवंशी राजा धरण के यहाँ हुआ । इनकी माता का नाम सुसीमा था जो पद्मप्रभ के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से रत्न वृष्टि आदि अतिशयों से सम्मानित थीं । अन्य जिन माताओं के समान इन्होंने भी सोलह शुभस्वप्न व मुख में प्रवेश करता हाथी देखा । तदनन्तर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन इन्होंने जिन बालक को जन्म दिया जिसका इन्द्रों ने मेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया और 'पद्मप्रभ' नाम रखा । १४९ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार गर्भकाल में माता को पद्म (कमल) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न होने तथा बालक के शरीर की प्रभा पद्म क समान होने के कारण ही इनका नाम पद्मप्रभ रखा गया । १५०
इनकी आयु तीस लाख पूर्व थी तथा शरीर दो सौ पचास धनुष ऊँचा था । जब उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने राज्य प्राप्त किया और जब उनकी आयु सोलह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व की रह गयी तब किसी समय दरावजे पर बँधे हाथी की दशा सुनने से इन्हें इस संसार व भोगों से विरक्ति हो गयी तब चतुर्निकाय देवों ने उनका दीक्षा - कल्याणक किया। छह मास छद्मस्थ अवस्था में व्यतीत करने के बाद चैत्र शुक्ल पौर्णमासी के दिन चित्रा नक्षत्र में वट वृक्ष के नीचे इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । जीवों को मोक्ष का मार्ग बताते हुए पद्मप्रभ ने सम्मेदशिखर पर एक माह तक एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन चित्रानक्षत्र में निर्वाण प्राप्त किया । १५१
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