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तृतीय अध्याय
तीर्थकर (या जिन) चौबीस तीर्थकरों या जिनों की धारणा जैनधर्म का मूलाधार है । जैन देवकुल के अन्य देवों की कल्पना सामान्यतः इन्हीं जिनों से सम्बद्ध एवं उनके सहायक रूप में हुई है। जिनों का जीव भी अतीत में सामान्य व्यक्ति की ही भाँति वासना व कर्मबन्धन में लिप्त था पर आत्ममनन, साधना एवं तपश्चर्या के परिणामस्वरूप उसने कर्मबन्धन से मुक्त होकर केवलज्ञान की प्राप्ति की । कर्म व वासना पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्हें 'जिन' कहा गया है जिसका शाब्दिक अर्थ विजेता है। तीर्थ का कर्ता या निर्माता होने के कारण इन्हें तीर्थंकर भी कहा गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैनधर्म के पंचमहाव्रत हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी, श्रावक व श्राविका हैं । यह चतुर्विध संघ ही तीर्थ कहा गया है। इन तीर्थों की स्थापना करनेवाले विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहा गया है। एक समय में एक क्षेत्र में सर्वज्ञ अनेक हो सकते हैं किन्तु तीर्थकर एक ही होंगे। तीर्थकर त्रीजगत के उद्धारक होते हैं। तीर्थंकर जन्म से ही कुछ. विलक्षणता लिये होते हैं। उनकी माताश्री द्वारा उनके जन्म के पूर्व शुभ स्वप्नों का दर्शन किया जाता है। तीर्थंकर के शरीर पर १००८लक्षण होते हैं । इनके साथ आठ महाप्रातिहार्य ( अशोक वृक्ष, सुरकृत पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, स्फटिक सिंहासन, भामण्डल, देव-दुन्दुभि और छत्रत्रयी) भी सर्वदा संबद्ध होते हैं।९ धर्मतीर्थ का संस्थापक और चालक होने के कारण तीर्थंकर का बलवीर्य जन्म से ही अमित होता है। 'अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में जिसका मन सदा रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं और उसकी सेवा करते हैं।' इस आर्ष वचनानुसार तीर्थंकर सदा देव-देवेन्द्रों द्वारा सेवित रहते हैं । १० प्रत्येक तीर्थंकर के शासन-रक्षक यक्ष-यक्षिणी होते हैं जो समय-समय पर शासन की संकट से रक्षा और तीर्थंकरों के भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं।११
वर्तमान अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों की प्राचीनतम सूची
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