________________
४८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन ई० में प्रारम्भ हुआ । १४६ इनके उदाहरण खजुराहो के पार्श्वनाथ, देवगढ़ के शान्तिनाथ एवं धाणेराव के महावीर मन्दिरों के प्रवेश-द्वारों पर देखे जा सकते हैं । १४७ क्षेत्रपाल :
क्षेत्रपाल को जैन देवकुल में ल० ग्यारहवीं शती ई० में सम्मिलित किया गया । १४८ इनकी मूर्तियाँ केवल ( ११वीं-१२वीं शती ई०) खजुराहो एवं देवगढ़ जैसे दिगम्बर स्थलों से ही मिली हैं (चित्र ५१)।१४९ ६४ योगिनियाँ : ___ मध्ययुग में ६४ योगिनियों को कल्पना की गयी। बी०सी० भट्टाचार्य ने जैन देवकुल के ६४ योगिनियों की दो सूचियाँ दी हैं । १५० इनमें से कुछ नाम हिन्दू योगिनियों से मेल खाते हैं तथा कुछ अन्य केवल जैनधर्म में ही उपलब्ध हैं । जैन शिल्प में इन्हें कभी आमूर्तित नहीं किया गया।१५१ गणेश : ___ ल० ११वीं-१२वीं शती ई० में ब्राह्मण देवकुल के लोकप्रिय देवता गणेश को जैन देवकुल में सम्मिलित किया गया ।१५२ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इन्हें हेरम्ब तथा लम्बोदर कहा गया है ।१५३ यू० पी० शाह के अनुसार १४वीं-१५वीं शती ई० में गणेश की उपासना जैन मन्दिरों में होने लगी।१५४ जिनके उदाहरण जैन मन्दिरों में भी देखने को मिलते हैं । गणेश की लाक्षणिक विशेषताएँ सर्वप्रथम आचारदिनकर१५५ में विवेचित हैं। गणेश की लोकप्रियता अधिकतर श्वेताम्बरों में थी। इनका मूर्त अंकन ल० १०वीं शती ई० से १२वीं शती ई० के मध्य हुआ जिसके उदाहरण मथुरा की अम्बिका मूर्ति में, ओसियाँ की जैन देवकुलिकाओं के प्रवेशद्वारों एवं भित्ति पर तथा कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर ( १२वीं शती ई०) पर हैं । १५६ शिल्पशास्त्रों एवं मूर्त उदाहरणों में गजमुख गणेश को एकदन्त, मूषकारूढ़ तथा करों में स्वदन्त, परशु, अंकुश, मोदक-पात्र और अभय या वरदमुद्रा के साथ दिखाया
गया है।१५७
ब्रह्मशान्ति यक्ष: ___ सर्वप्रथम चतुर्विंशतिका१५८ (शोभनसूरिकृत ) एवं निर्वाणकलिका१५९ में ब्रह्मशान्ति यक्ष की लाक्षणिक विशेषताओं का निरूपण मिलता है। विविधतीर्थकल्प ( जिनप्रभसूरिकृत) के सत्यपुर तीर्थकल्प में ब्रह्मशान्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org