Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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पार्श्व का धर्म
पार्श्व का धर्म “चाउज्जाम'13 धर्म कहा गया है या चार प्रकार का धर्म जो हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रहवृत्ति से परहेज प्रस्तावित करता है। प्रश्न यह है कि पार्श्व और महावीर के द्वारा व्रतों की संख्या जो क्रमश: चार और पाँच प्रस्तावित की गयी थी उनकी संख्याओं में भेद क्यों था? इसके उत्तर में यह कहा गया कि प्रथम तीर्थंकर के अधीन जो साधु थे वे सरल थे लेकिन मन्दबुद्धि थे, और अंतिम तीर्थंकर के अधीन जो साधु थे वे कपटी थे और मन्दबुद्धि भी थे, उन दोनों के बीच में (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) साधु सरल और बुद्धिमान थे इसलिए दो प्रकार के नियम हैं। फिर, जो प्रथम (तीर्थंकर) के अधीन साधु थे वे नियमों के आदेशों को कठिनाई से समझते थे और अंतिम (तीर्थंकर) के अधीन साधु उनको केवल कठिनाई से पालन कर सकते थे। लेकिन उनमें से जो बीचवाले साधु (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) थे वे आसानी से समझ जाते थे और उनका पालन भी करते थे।15 महावीर का अतिरिक्त स्पष्टीकरण
. प्रथम, महावीर द्वारा जो स्पष्टीकरण किया गया वह था पार्श्व के चार व्रतों में पाँचवें व्रत ब्रह्मचर्य की स्पष्टरूप से वृद्धि। पार्श्व के धर्म में वह अव्यक्त था जबकि महावीर के धर्म ने अपने शिष्यों को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मचर्य व्रत को व्यक्त कर दिया, क्योंकि वे शिष्य जटिल
और मन्दबुद्धि थे। यह वृद्धि पार्श्व के शिष्यों के विरोध में है जो “सरल .
13. Uttarādhyayana, XXIII. 12 14. Uttaradhyayana, XXIII.26
मूलाचार, 534, 535 15. Uttarādhyayana, XXIII. 27
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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