Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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यह दान देना, बिना किसी अपेक्षा के होना चाहिए। 184 यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि संभवतया इस व्रत के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए समन्तभद्र इसे वैयावृत्त्य नाम देते हैं। इसके अन्तर्गत सम्मिलित हैं- उन लोगों के रोगों को दूर करना जो त्याग का मार्ग अपना रहे हैं और अन्य भी कई प्रकार से उनकी सेवा करना । 185 समन्तभद्र इस व्रत का पालन करनेवालों के लिए अर्हन्तों की भक्ति को आवश्यक मानते हैं । 186
अतिथिसंविभागव्रत का पालन करने के लिए सुपात्रों व अन्य पात्रों तथा दान देने योग्य वस्तुओं का ज्ञान अतिआवश्यक है। सम्यग्दर्शन ( आत्मजाग्रति) युक्त आचरण से गुण-श्रेणी विकसित होती है। अतः तीन प्रकार के सुपात्र माने गए हैं। (क) वह साधु जिसने मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपना जीवन समर्पित किया है वह गुणों की श्रेणी पर सबसे ऊँचा होता है।187 (ख) गृहस्थ जो बारह व्रतों का पालन करता है या ग्यारह प्रतिमाओं द्वारा प्रस्तावित आचरण का पालन करता है वह गुणों की श्रेणी के मध्य में होता है । 188 (ग) वह व्यक्ति जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर
184. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 167
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 111
185. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 112 186. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 118 187. वसुनन्दी श्रावकाचार, 221
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171
अमितगति श्रावकाचार, 10/4 सागारधर्मामृत, 5/44
188. वसुनन्दी श्रावकाचार, 222 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171
अमितगति श्रावकाचार, 10/ 27-30 सागारधर्मामृत, 5/44
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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