Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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सम्मिलित कर लिया है और शेष ग्यारह प्रतिमाओं के नाम वही हैं। अतः यहाँ कोई पारम्परिक गणना से भिन्नता नहीं है। प्रायः सभी आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमाएँ स्वीकार की हैं और हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि उल्लिखित तीन व्रत ( सामायिक, प्रोषधोपवास और भोगोपभोगपरिमाण) नौ प्रतिमाओं के आचार सम्बन्धी विकास को समझाने में समर्थ हैं।
दर्शन प्रतिमा
(1) प्रथम प्रतिमा दर्शन प्रतिमा है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् साधक दृढ़तापूर्वक घृणित वस्तुओं के प्रयोग जैसे- मद्य, मांस आदि 203 को त्याग देता है और सांसारिक और स्वर्गीय सुखों से उदास हो जाता है और अनासक्ति की भावना का पोषण करता है। 204 वसुनन्दी के दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है और पंच उदम्बर फलों के प्रयोग को त्याग दिया है और जूआ, मद्य, मांस, मधु, शिकार और चोरी आदि को छोड़ दिया है वह दार्शनिक श्रावक कहा जाना चाहिए। 205 उपर्युक्त आसक्तियों को त्यागने के अतिरिक्त वसुनन्दी स्पष्ट रूप से रात्रिभोजन करने की निन्दा करते हैं और तर्क देते हैं कि जो रात्रि में भोजन करता है वह प्रथम प्रतिमा के पालन करने का दावा नहीं कर सकता है। 206 यदि हम प्रथम प्रतिमा के आचरण का पालन करने पर थोड़ा-सा भी चिन्तन करें तो हम यह कह सकते हैं कि
203. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 328, 329
204. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 137 चारित्रसार, पृष्ठ 3
205. वसुनन्दी श्रावकाचार, 57-59
206. वसुनन्दी श्रावकाचार, 314
(150) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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