Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 193
________________ में जो सल्लेखना का आचरण करता है वह साधक श्रावक कहलाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ धर्म के आचरण का वर्णन करने में इस पद्धति में पूर्व सभी पद्धतियाँ उचित प्रकार से समन्वित कर ली गई. सल्लेखना का स्वरूप और इसका आत्मघात से भेद गृहस्थ के नैतिक आचरण की तीनों प्रकार की पद्धतियों में सामञ्जस्य स्थापित करने के पश्चात् अब हम जैनधर्म में मान्य सल्लेखना की धारणा को समझायेंगे। इसका अर्थ है बाह्य शरीर और आन्तरिक कषायों को (उनके पोषण के कारणों को शनैः-शनैः हटाने के द्वारा) उचित प्रकार से दुर्बल करना, जिससे व्यक्ति वर्तमानं शरीर को त्याग सके।31 यदि और अधिक स्पष्टीकरण किया जाय तो कहा जा सकता है कि संकट, अकाल, बुढ़ापा और रोग के अपरिहार्यरूप से सम्मुख होने पर आध्यात्मिक क्रियाओं के पालने में कठिनाई होने के कारण वर्तमान शारीरिक ढाँचे के त्याग की प्रक्रिया को सल्लेखना कहा जाता है।232 यह समझना चाहिए कि सल्लेखना की प्रक्रिया या तो उस समय स्वीकार की जानी चाहिए जब धार्मिक क्रियाएँ शारीरिक अशक्तताओं के कारण खतरे में पड़ गई हों या उस समय जब स्वाभाविक मृत्यु का समय पूर्ण संभावना से जान लिया गया है।233 निःसन्देह शरीर जो आत्मा के उत्थान का माध्यम है उसे उचित प्रकार से पोषित किया जाना चाहिए, उसकी सम्हाल की जानी चाहिए और बीमारियों का बिना पीछे हटे 231. सर्वार्थसिद्धि, 7/22 232. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 122 233. सागारधर्मामृत, 8/20 अमितगति श्रावकाचार, 6/98 योगशास्त्र, 3/148 (158) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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