Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 191
________________ साधक घर-संबंधी मामलों में सलाह नहीं देता है।224 वह अपने लिए बनाये गये भोजन व वस्त्रों के त्याग के अतिरिक्त और सभी त्याग देता है। (11) ग्यारहवीं प्रतिमा उद्दिष्टत्याग प्रतिमा कही जाती है। यह उस समय प्राप्त होती है जब साधक घर छोड़ देता है और जंगल में चला जाता है जहाँ मुनि रहते हैं और गुरु की उपस्थिति में वह व्रत धारण करता है। वह तप करता है, भिक्षा से भोजन प्राप्त करता है और एक लंगोटी पहनता है। इस तरह से वह उत्तम श्रावक कहलाता है।25 ... गृहस्थ के नैतिक आचरण की व्याख्या का सुव्यवस्थित तीसरा प्रकार गृहस्थ के नैतिक आचरण की तीसरे प्रकार से भी व्याख्या की गई है। यह प्रकार व्याख्या की व्यापक प्रवृत्ति के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। सल्लेखना जो कुन्दकुन्द ने व्रतों में सम्मिलित की है वह दूसरे आचार्यों द्वारा व्रतों में से बाहर निकाल दी गयी और उसको अलग स्थान दिया गया। इसके अतिरिक्त, मूलगुण, व्रत और प्रतिमा एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं। यद्यपि प्रतिमा की धारणा मूलगुणों और व्रतों को सम्मिलित करने में समर्थ है फिर भी ये मूलगुणों का सम्यग्दर्शन के साथ मिश्रण कर देती है। इस प्रकार यह मूलगुणों को उनके मौलिक प्रयोजन से दूर कर देती है अर्थात् साधारण आदमी को नैतिकता के अल्पतमरूप से दूर कर देती है। यद्यपि मूलगुण और सम्यग्दर्शनसहित व्रत प्रतिमा को उत्पन्न करते हैं फिर भी सल्लेखना अलग रह जाती है। इस प्रकार प्रतिमाओं की धारणा दो दोषों से ग्रसित है। प्रथम, मूलगुणों के व्यापक क्षेत्र को अंगीकार न करना 224. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 388 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 146 वसुनन्दी श्रावकाचार, 300 225. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 147 (156) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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