Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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यह प्रतिमा सम्यग्दर्शन के साथ मूलगुणों को सम्मिलित करती है। अतः मूलगुणों की विभिन्न धारणायें प्रथम प्रतिमा के विभिन्न रूप चित्रित करती हैं। यह संभव है कि इस तथ्य को जानने के कारण सोमदेव प्रथम प्रतिमा को 'मूलव्रत' कहते हैं।207
यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि प्रथम प्रतिमा का चित्रण इतना व्यापक है कि यह प्रतिमा वसुनन्दी के अनुसार प्रतिपादित सब मूलगुणों को अपने अन्तर्गत सम्मिलित कर लेती है। यह समन्तभद्र और जिनसेन की धारणाओं के अनुसार कठोर नहीं है जिसमें पाँच अणुव्रत सम्मिलित किये गये हैं और सोमदेव के दृष्टिकोण से अत्यधिक सरल भी नहीं है। सात प्रकार के व्यसनों (जूआ, मांस, मद्य, शिकार, वेश्यावृत्ति, परस्त्रीगमन, चोरी) में चार प्रकार के व्रत आ जाते हैं अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्मचर्य। अत: इसमें कुछ हद तक समन्तभद्र और जिनसेन का दृष्टिकोण सम्मिलित हो जाता है।
इस प्रकार मूलगुण और सम्यग्दर्शन प्रथम प्रतिमा का चित्रण कर सकते हैं। जैसे मूलगुणों की धारणा गतिशील है उसी प्रकार प्रथम प्रतिमा का निरूपण भी गतिशील होगा। दूसरे शब्दों में यह प्रतिमा उन नयी विकसित कुप्रवृत्तियों के त्याग को सम्मिलित करने में समर्थ है जो व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध कर सकती हैं। यदि हम इस प्रतिमा में से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को घटा दें तो हमें नैतिक विकास की ग्यारह प्रतिमाएँ प्राप्त होंगी। जब कि सम्यग्दर्शन के कारण ये प्रतिमाएँ आध्यात्मिक विकास की ग्यारह प्रतिमाएँ कही जायेंगी। यह जानना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि प्रथम प्रतिमा नैतिक आचरण के प्रारंभिक
207. वसुनन्दी श्रावकाचार, 59
वसुनन्दी श्रावकाचार, भूमिका, पृष्ठ 50
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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