Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 182
________________ उन्होंने भक्तिदान या पात्रदान पर जोर देने के कारण दान के सामाजिक पक्ष की उपेक्षा नहीं की। दान देने योग्य वस्तुएँ चार प्रकार की मानी गयी हैं- अर्थात् आहार, औषधि, शास्त्र और अभय।193 ये सभी वस्तुएँ पात्रों के योग्य होनी चाहिए। केवल ऐसी वस्तुएँ दी जानी चाहिए जो स्वाध्याय के लिए, उच्चकोटि के तप के लिए लाभदायक हों और जो राग, द्वेष, असंयम आदि को उत्पन्न नहीं करती हों। गृहस्थ के नैतिक आचरण का दो प्रकार से निरूपण- व्रत और प्रतिमा के रूप में हम अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के स्वरूप की व्याख्या कर चुके हैं। गुणव्रत और शिक्षाव्रत जो शीलव्रत कहे गये हैं वे व्यक्ति को त्यागमय जीवन के विकास के लिए शिक्षा देने में समर्थ हैं। वे उसमें पाप की चेतना को गहरा करते हैं। परिणाम स्वरूप सूक्ष्म हिंसा जो शुभ ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) करने के लिए बाधा है उसके कारणों को पूर्णतया हटाने के लिए शीलव्रत उत्साहित करते हैं। यह स्पष्ट है कि गृहस्थ जो अणुव्रतों का पालन करता है उसके जीवन में जो हिंसा शेष रहती है वह भोग और उपभोग की वस्तुओं के प्रयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। अब जिसका हृदय प्रकाशित हो चुका है जिसने त्यागमय जीवन के कर्तव्यों को पालने की शक्ति प्राप्त कर ली है, वह शनै:-शनैः भोग और उपभोग की वस्तुओं को त्यागने की ओर चलता है, जब तक वह साधु जीवन तक नहीं पहुँच जाता। दूसरे शब्दों में, जीवन का उन्नत दृष्टिकोण निषेधात्मकरूप से भोग और उपभोग की वस्तुओं को अन्तिम 193. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 362 अमितगति श्रावकाचार, 9/83, 106, 107 वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (147) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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