Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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असंबंधित करना अमूढदृष्टि अंग कहलाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार भय, हीनता और लालच के वशीभूत होकर जो व्यक्ति हिंसा को धर्म नहीं मानता वह मूढ़ता से रहित होता है। अमूढदृष्टि व्यक्ति कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र, कुचारित्र और झूठी सामान्य धारणाओं को त्यागने पर जोर देता है।" (5) उपबृंहण- जो व्यक्ति पवित्र विचारों में ठहरकर अपने आपमें आध्यात्मिक गुण विकसित करता है और जो अपने गुणों को नहीं उघाड़ता है वह उपबृंहण का पालन करनेवाला होता है।(6) स्थितीकरण- क्रोध, मान, माया, लोभ या दूसरे कारणों तथा तीव्र कषायों से प्रभावित होकर सत्यमार्ग से भटकने के लिए कोई भी व्यक्ति बाध्य किया जा सकता है। ऐसे समय में उसको अपनी महानता की याद दिलाकर सुमार्ग में पुनःस्थापित करना स्थितीकरण अंग कहलाता हैं। दूसरे शब्दों में, उन व्यक्तियों को उठाना जो धर्म से गिर गये हों और अपने आपको दोषों से बचाना- ये दोनों स्थितीकरण अंग को बताते हैं। (7) वात्सल्य-94 जो आध्यात्मिकता के प्रति अनुराग और अहिंसा के प्रति प्रेम रखते हैं और जो आध्यात्मिक बंधु है उनके प्रति स्नेह रखते हैं ऐसे व्यक्ति वात्सल्य अंग का पालन करते हैं। वह जो गुणवानों के प्रति भक्ति रखता है उनका अत्यन्त आदर से अनुसरण करता है और उनके साथ भली प्रकार से व्यवहार करता है वह भी 89. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 14 90. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 417 91. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 26 92. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 27 93. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 16
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 28 94. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 419 95. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 29
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 17 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (91)
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