Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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पुण्य (गुण) और पाप (दोष) के मिश्रण के रूप में गृहस्थ का जीवन
अब तक हम पाँच पापों और पाँच अणुव्रतों के स्वरूप के बारे में वर्णन कर चुके हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और अपरिग्रह पाँच प्रकार के पाप हैं। यह याद रखना चाहिए कि तीन प्रकार की असंकल्पात्मक हिंसा, एकेन्द्रिय जीवों की संकल्पात्मक हिंसा, सावद्य या पापपूर्ण भाषा का प्रयोग, अपनी पत्नी के साथ कामुक संबंध, बिना आज्ञा के सामान्य वस्तुओं का प्रयोग और सीमित परिग्रह रखना- ये सभी गृहस्थ के पाप हैं। दूसरे शब्दों में, सामाजिक दृष्टि से देखने पर वे पापरूप नहीं हैं, किन्तु
आध्यात्मिक दृष्टि से वे पापरूप माने जाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण से वे न्यायसंगत कहे जा सकते हैं किन्तु इनको आध्यात्मिक रूप से न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। इस प्रकार गृहस्थ के जीवन में पूर्ण मन्द कषाय असंभव है। उसका जीवन सदैव गुण और दोषों के मिश्रण से युक्त होता है। गृहस्थ जो अणुव्रतों का कठोरता से पालन नहीं करता उसकी हालत शोचनीय होती है। उसके जीवन में गुण केवल आकस्मिक घटना है और कभी-कभी सामाजिक विवशता है। यह एक प्रकार से मिथ्या गुण होगा। वास्तविक गुण तो अंतरंग पाप की चेतना से उत्पन्न होता है। पाप की चेतना के कारण ही व्रत नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए हितकारक और प्रेरक होते हैं। व्रतों के उचित पालन के लिए किन्हीं विचारों की पुनरावृत्ति और उनका चिन्तन
व्रत मन में दृढ़ हो जाएँ और उत्साह से पालन किये जाएँ- इसके लिए तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकार ने निम्नलिखित विचारों पर चिन्तन और उनको मन में दोहराने का परामर्श दिया है। प्रथम, व्यक्ति को इन पाँच
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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