Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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और सर्वार्थसिद्धि 22 देशव्रत के स्वरूप को समझाते हुए कहते हैं कि देशव्रती अपनी गतिविधि को गाँव की सीमा तक निर्धारित करते हैं, शेष स्थानों को छोड़ देते हैं। अमितगति इस व्याख्या का समर्थन करते हैं। 123 यदि देशव्रत की यह व्याख्या जो इसको जीवनपर्यन्त पालने का समर्थन करती है तो दिग्वत से इसका भेद नहीं किया जा सकता। संभवतः इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए अकलंक और चामुण्डराय ने विशेषतया उल्लेख किया है कि दिग्वत जीवनपर्यन्त पालन किया जाता है लेकिन. देशव्रत सीमित समय के लिए पाला जाता है। अमृतचन्द्र के अनुसार भी देशव्रत सीमित समय के लिए पालन किया जाता है। यदि अकलंक और अमृतचन्द्र के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हैं तो गुणव्रत के रूप में देशव्रत
और शिक्षाव्रत के रूप में देशव्रत के बीच भेद नहीं हो सकेगा। इस प्रकार एक व्याख्या के अनुसार देशव्रत दिग्वत में समाविष्ट हो जाता है जब कि अन्य व्याख्याओं के अनुसार इसे शिक्षाव्रत माना जाना चाहिए, क्योंकि इसका पालन सीमित समय के लिए प्रस्तावित है। यह सत्य है कि अकलंक
और अमृतचन्द्र गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विवाद को टालते हैं क्योंकि वे सात व्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में विभक्त नहीं करते हैं जैसे पूज्यपाद ने किया। लेकिन फिर भी शिक्षाव्रत के रूप में देशव्रत की परम्परा अकलंक और अमृतचन्द्र की व्याख्या की उपेक्षा नहीं कर सकती। यह संभावित है कि देशव्रत के इस विवादात्मक स्वरूप के कारण वसुनन्दी ने इसे यह कहकर समझाया कि इसका अर्थ है उन स्थानों या देशों के निवास को छोड़ना जहाँ व्रतों का पालन कठिनाई से हो या जोखिम भरा हो।124 देशव्रत की इस व्याख्या के अनुसार इसको गुणव्रत 122. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 123. अमितगति श्रावकाचार, 6/78 124. वसुनन्दी श्रावकाचार, 215
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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