Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 168
________________ मानना न्यायसंगत है। तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता श्रुतसागर सर्वार्थसिद्धि में दी गयी दिव्रत की व्याख्या को स्वीकार करने के अतिरिक्त वसुनन्दी के दृष्टिकोण का समर्थन यह कहते हुए करते हैं कि देशव्रत उन स्थानों को टाल देता है जो व्रतों को पालने में बाधा डालते हैं और अपने मन में अशांति उत्पन्न करते हैं।125 अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप __ अब हम अनर्थदण्डव्रत के स्वरूप का विचार करेंगे। सभी आचार्य इसको गुणव्रत के रूप में स्वीकार करते हैं। कार्तिकेय के अनुसार अनर्थदण्डव्रत ऐसे तुच्छ कार्यों के करने का त्याग करना है जो किसी लाभदायक उद्देश्य के लिए उपयोगी नहीं है।126 वे मन की अस्वस्थता को उत्पन्न करते हैं जिसका परिणाम नैतिक पतन होता है। समन्तभद्र के अनुसार अनर्थदण्डव्रत में निरर्थक क्रियाओं से दूर रहना जो अशुभ शारीरिक, मानसिक और वाचिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न होती हैं।127 अकलंक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में स्पष्टतया कहते हैं कि अनर्थदण्डव्रत को दिव्रत, देशव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के बीच रखने का उद्देश्य दिव्रत, देशव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत द्वारा निर्धारित सीमाओं में न तो उद्देश्यरहित गतिविधि करना चाहिए, और न ही ऐसे ऐन्द्रिक सुखों को भोगना चाहिए जो तुच्छ हों।128 श्रावकप्रज्ञप्ति दृढ़तापूर्वक कहती है कि जो क्रियाएँ बिना किसी उद्देश्य के की जाती हैं और जो क्रियाएँ किसी उद्देश्य से की जाती है उनमें पूर्ववर्ती अत्यधिक कर्मों का बंधन उत्पन्न 125. तत्त्वार्थवृत्ति, 7/21/10-14 126. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 343 127. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 74 128. राजवार्तिक, 2/7/21, 22 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (133) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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