Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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भोग और उपभोग के उपर्युक्त स्वरूप को ध्यान में रखते हुए केवल वसुनन्दी इसको भोगविरति और परिभोगनिवृत्ति में विभाजित करते हैं।147 यह व्रत भोग और उपभोग की सीमा की स्वीकारात्मक प्रक्रिया को ही सम्मिलित नहीं करता, किन्तु उनके त्याग की निषेधात्मक प्रक्रिया को भी सम्मिलित करता है। कार्तिकेय कहते हैं कि वे वस्तुएँ जो हमारी पहुँच के अन्तर्गत हैं उन वस्तुओं का त्याग उनसे अधिक प्रशंसनीय है जो न तो हमारे पास है और न भविष्य में होंगी। समन्तभद्र कहते हैं कि उन वस्तुओं को छोड़ना जो हमारे लिए अनुपयोगी हैं और जो उच्च व्यक्तियों के द्वारा प्रयोग के अयोग्य हैं वे व्रत के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं मानी जा सकती हैं। इसके अन्तर्गत विचारपूर्वक अनुकूल वस्तुओं को त्यागना है, क्योंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार की वस्तुएँ साधारण आदमियों के द्वारा प्रयोग में कभी नहीं ली जाती हैं।148 अमृतचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ को अपनी शक्ति के अनुसार उन वस्तुओं का त्याग करना चाहिए जिनका प्रयोग,अस्वीकृत नहीं है।149 भोगोपभोगपरिमाणव्रत में दो प्रकार से त्याग
भोगोपभोगपरिमाणव्रत में त्याग दो प्रकार से होता है- यमरूप और नियमरूप। यमरूप त्याग जीवनपर्यन्त होता है जब कि नियमरूप त्याग सीमित समय के लिए होता है। 50 निम्न प्रकार की वस्तुएँ- (1) वे वस्तुएँ जो एकेन्द्रिय जीवों से अधिक प्राणवालों की हिंसा से प्राप्त होती हैं जैसे- मांस और मधु। (2) वे वस्तुएँ जो आध्यात्मिक अकर्मण्यता
147. वसुनन्दी श्रावकाचार, 217, 218 148. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 86 149. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 164 150. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 87
सागारधर्मामृत, 5/14
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Ethical Doctrines in Jainism
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