Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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देशव्रत का स्वरूप
अब हम देशव्रत के स्वरूप पर उन आचार्यों के अनुसार वर्णन करेंगे जिन्होंने इसे शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार किया है । कुन्दकुन्द देशव्रत को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उसके स्थान पर सल्लेखना का उल्लेख करते हैं। कार्तिकेय और समन्तभद्र देशव्रत को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं, लेकिन समन्तभद्र देशव्रत को प्रथम और कार्तिकेय चौथा शिक्षाव्रत स्वीकार करते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति,111 हरिभद्र112 और हेमचन्द्र आदि के द्वारा देशव्रत दूसरे शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ यह बताया जा सकता है कि कार्तिकेय, समन्तभद्र और हेमचन्द्र ने सल्लेखना को अनावश्यक नहीं माना है किन्तु वे शीलव्रतों के पश्चात् उसका वर्णन करते हैं। अन्य विचारक!14 भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि सल्लेखना का वर्णन शीलव्रतों के वर्णन के पश्चात् किया जाना चाहिए। दिग्व्रत में व्यापक रूप से निर्धारित किये गये क्षेत्र में से जब घर, उद्यान, गाँव, नदी और वन आदि को आधार बनाकर क्षेत्र को प्रतिदिन कम करते जाते हैं तो यह देशव्रत कहा जाता है। 15 समन्तभद्र कहते हैं कि एक वर्ष, आधा वर्ष, चार महीने, दो महीने, एक महीना
111. श्रावकप्रज्ञप्ति, 318 112. धर्मबिन्दु, 151 113. योगशास्त्र, 3/84 114. तत्त्वार्थसूत्र, 7/22
अमितगति श्रावकाचार, 6/98
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 175-179 115. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 92, 93
सागारधर्मामृत, 5/25, 26 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 368 श्रावकप्रज्ञप्ति, 318
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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