Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 162
________________ अब हम प्रत्येक शीलव्रत के स्वरूप पर विचार करेंगे। कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहुड'00 में केवल उनके नाम गिनाये हैं। केवल नामों से उनके विचारों को समझना कठिन है। यद्यपि उमास्वामी ने गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के नामों का उल्लेख नहीं किया है लेकिन महान व्याख्याता पूज्यपाद101 और विद्यानन्दि102 पहले तीन को गुणव्रत मानते हैं और अंतिम चार को शिक्षाव्रत। दिग्व्रत का स्वरूप अब हम दिग्व्रत के स्वरूप के बारे में विचार करेंगे। सभी परम्पराएँ इसे गुणव्रत के रूप में स्वीकार करती हैं। इसके अनुसार दसों दिशाओं में अपनी गतिविधि की सीमा निर्धारित करना अपेक्षित है।103 सीमा के लिए हमारे द्वारा प्रसिद्ध संकेतों का प्रयोग किया जाता है; जैसे- समुद्र, नदी, वन, पर्वत, देश, योजन का पत्थर आदि।104 समन्तभद्र05 और 100. चारित्रपाहुड, 25,26 101. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 102. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृष्ठ 467 103. श्रावकप्रज्ञप्ति, 280 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 342 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 68 तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, 7/21 योगशास्त्र, 3/1 104. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 69 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 137 वसुनन्दी श्रावकाचार, 214 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 सागारधर्मामृत, 5/2 राजवार्तिक, 2/7/21 105. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 68 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (127) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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