Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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रूप से कहें तो ये अणुव्रतों के पालन में सकारात्मक सुधार उत्पन्न करते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति के अनुसार गुणव्रत और शिक्षाव्रत में यह भेद है कि गुणव्रत पूरे जीवन के लिए पालन किए जाते हैं, लेकिन शिक्षाव्रत सीमित समय के लिए पालन किए जाते हैं। आशाधर के अनुसार गुणव्रतों के पालन से अणुव्रत अधिक अच्छे तरीके से पाले जाते हैं और शिक्षाव्रतों का पालन करने से व्यक्ति त्यागमय जीवन के लिए प्रेरणा और प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। ये दो भिन्न प्रतीत होनेवाले दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं किन्तु वे एक दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं। पूर्ववर्ती दृष्टिकोण समय पर जोर देता है, जब कि परवर्ती दृष्टिकोण गुणव्रत और शिक्षाव्रत के द्वारा किये जानेवाले कार्य पर जोर देता है।
शीलव्रतों की संख्या के बारे में जैनाचार्य पूर्णरूप से एकमत हैं। वे सभी इस बात से सहमत हैं कि गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार होते हैं। तीन गुणव्रतों में से दिव्रत और अनर्थदण्डव्रत सभी आचार्यों के द्वारा गुणव्रत के रूप में स्वीकार किये गये हैं और चार शिक्षाव्रतों में से
अतिथिसंविभागवत को सभी आचार्य शिक्षाव्रत मानते हैं। सभी आचार्य सिवाय वसुनन्दी के सामायिकव्रत और प्रोषधोपवासव्रत को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत रखते हैं। वसुनन्दी ने इनको व्रत के रूप में स्वीकार नहीं किया। देशव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत और सल्लेखना के विवादात्मक स्वभाव के कारण व्रतों में विभिन्न मत उत्पन्न हो गये हैं । कुन्दकुन्द भोगोपभोगपरिमाणव्रत को गुणव्रत के रूप में और सल्लेखना को शिक्षाव्रत के रूप में मानते हैं और शीलव्रतों की रूपरेखा में देशव्रत का उल्लेख नहीं करते
93. श्रावकप्रज्ञप्ति, 328 94. सागारधर्मामृत, 6/24 95. चारित्रपाहुड, 25, 26
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त - (125)
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