Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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परिग्रहपरिमाणाणुव्रत या अपरिग्रह का स्थूल रूप है। हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि गृहस्थ का अपरिग्रह व्रत आर्थिक विषमता जो समाज में प्रचलित है उसको नष्ट कर सकता है और इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति कम से कम प्रतिदिन की आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कर सकेगा। आज मनुष्य और राष्ट्र दूसरों की कीमत पर अपनी राज्यसीमा और धन को बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति और राष्ट्र के तनाव बढ़ रहे हैं। परिग्रह हानिकारक है जब वह असामान्य आसक्ति को उत्पन्न करता है। एक लोकोपकारी दृष्टिकोण परिग्रहपरिमाणाणुव्रत को पालने के लिए आवश्यक है। इस व्रत की शुद्धता को बनाए रखने के लिए घर और भूमि, सोना और चाँदी, पशुधन और धान्य, दासी और दास तथा वस्त्र और बरतन आदि में सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त आवश्यकता से अधिक संख्या में वाहन रखना, आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह करना, दूसरों की जायदाद के प्रति ईर्ष्या करना, अत्यधिक लोभ और जानवरों पर अधिक भार लादना इनको भी टालना चाहिए।
70. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 187
तत्त्वार्थसूत्र, 7/29 Uvāsagadasão 1/49 सागारधर्मामृत, 4/64
अमितगति श्रावकाचार, 7/7 71. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 62
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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