Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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नहीं मानता है। जो कुछ भी वह कर्ता है और भोक्ता है वह कर्मों की शक्ति और अपनी दुर्बलता के कारण होता है। किन्तु अंतरंग रूप से उसमें रुचि नहीं होती, क्योंकि उसने एक उच्चकोटि का रस प्राप्त कर लिया है। जैनाचार की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के रूप में सम्यग्दर्शन
हमने सम्यग्दर्शन के स्वभाव को तत्त्वों में दृढ़ श्रद्धा के रूप में समझाने का बार-बार प्रयास किया है, जो अन्ततोगत्वा हमें शुद्धात्मा में दृढ़ श्रद्धा अपनाने के लिए प्रेरित करता है। सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र नैतिकता से परे होने में असमर्थ रहेगा। एक मुनि जो अपनी तपस्या मात्र नैतिक धारणाओं पर आधारित करता है वह उस गृहस्थ से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है जिसका अंतरंग सम्यग्दर्शन के प्रकाश से प्रकाशित हो चुका है क्योंकि मुनि तो आनन्द की अवस्था से परे स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करने के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है, जबकि गृहस्थ सही दिशा की ओर प्रवृत्त है जिसके कारण जो कुछ उसके मूलभूत स्वभाव के योग्य है वह फल उसको यथासमय प्राप्त होगा। शुभ भाव आध्यात्मिकरूप से जाग्रत व्यक्ति के लिए ठहरने के अस्थायी स्थान हैं जब वे आत्मानुभव के शिखर पर ठहरने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार ऐसे साधक शुभ कार्यों को सम्पन्न करने में अवचेतन अहंकार से भी अपने आप को मुक्त कर लेते हैं।
इसके विपरीत जो केवल नैतिकरूप से रूपान्तरित हुए हैं वे शुभ भावों की प्राप्ति और शुभ क्रियाओं को सम्पन्न करने को ही अन्तिम उद्देश्य मानते हैं। अतः वे अन्तहीन सांसारिक जीवन के बंधन में पड़ जाते हैं, जिसके कारण वे आध्यात्मिक जाग्रति से पूर्व आध्यात्मिक आनन्द से सदैव वंचित रहेंगे। इसके अतिरिक्त उनका गूढ़ ज्ञान और 111. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 135,136
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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