Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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चौथा अध्याय गृहस्थ का आचार
पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण
पूर्व अध्याय में हमने सम्यग्दर्शन के स्वभावसहित सात तत्त्वों पर विचार किया है। प्रथम, जीव और अजीव तत्त्व के स्वभाव का वर्णन करने के पश्चात् हमने 'योग' के स्वभाव (आत्मा की कम्पनात्मक क्रिया) तथा संसारी और सदेह अर्हन्त आत्माओं पर इसके (योग के) प्रभाव की व्याख्या की है। द्वितीय, कषायों के स्वभाव के साथ ही उनके बहुविध अस्तित्व और उनकी प्रक्रियाओं को समझाया गया है। तृतीय, हमने शुभ और अशुभ साम्परायिक आस्रव के कुछ कारणों का वर्णन किया है। आस्रव और बंध के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द की दृष्टि से भी विचार किया गया है। चतुर्थ, संवर, निर्जरा और मोक्ष के स्वभाव को संक्षेप में दर्शाया गया है, क्योंकि वे आत्मा के नैतिक-आध्यात्मिक विकास के उदाहरण हैं। पाँचवाँ, हमने व्यवहार और निश्चय दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन के स्वरूप पर विचार किया है तथा ज्ञान और चारित्र की प्रामाणिकता के लिए इसके (सम्यग्दर्शन) महत्त्व पर बल दिया है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि कोई भी आचरण जो उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की प्राप्ति में सहायक होता है वह आध्यात्मिक जाग्रति की अपेक्षा रखता है और यह जैन आचार को आध्यात्मिक मानने में अपने आप एक सबूत है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में सभी बौद्धिक ज्ञान और नैतिक आचरण साधक को उस उच्चकोटि की प्राप्ति से वंचित कर देगा जिसकी उसमें अन्तर्निहित योग्यता है।
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Ethical Doctrines in Jainism
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