Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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है अत: उसे गृहस्थ कहा जाता है। जो सकल चारित्र का पालन करता है वह शुभ क्रियाओं को पूर्णतया पालन करने में समर्थ होता है अतः उसे मुनि कहा जाता है। इस अध्याय में हम विकल चारित्र का वर्णन करेंगे
और सकल चारित्र को अगले (खण्ड-2) में समझायेंगे। मनुष्य की विशिष्ट स्थिति
जैन तत्त्वज्ञान अनन्त आत्माओं और पुद्गल के अनन्त परमाणुओं का अन्य द्रव्यों सहित उल्लेख करता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक अनन्तं चेतन द्रव्यों में से मनुष्य अकेला विकास की अंतिम सीमा जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, केवल मनुष्य अपने संभाव्य गुणों को पूर्णतया प्रकट करने में समर्थ है। यद्यपि प्रत्येक आत्मा अन्तःशक्ति की अपेक्षा दिव्य है फिर भी आत्म-स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसी समय संभव होती है जब आत्मा मनुष्य के रूप में जन्म लेती है, अत: यह मनुष्य जन्म का महत्त्व है। त्याग का दार्शनिक दृष्टिकोण
सजीव और निर्जीव वस्तुएँ अपने आप में शुभ और अशुभ नहीं होती हैं। उन्हें शुभ और अशुभ कहा जाता है जब वे संसारी आत्माओं के सम्बन्ध में विचारी जाती हैं। वे प्राय: संसारी आत्माओं पर इस हद तक प्रभाव डालती हैं कि मन्द कषाय या तीव्र कषाय आत्मा में उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, मन्द कषाय या तीव्र कषाय किसी विशेष वस्तु के लिये लालायित होने में अपने आप को सन्तुष्ट करती है। तीव्र कषाय अशुभ (अवगुण) और मन्द कषाय शुभ (सद्गुण) होती है। उदाहरणार्थ-भक्ति मन्द कषाय है, किन्तु कामुक विचार और विलासिता तीव्र कषाय है। बाह्य वस्तु और अन्तरंग मनोभावों में समानान्तरता के कारण बाह्य वस्तुओं को छोड़ना उसके अनुरूप तीव्र कषाय को नष्ट करने में सहयोग करता है। 4. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 90
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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