Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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असत्य का स्वरूप
अब हम असत्य और सत्याणुव्रत के स्वरूप की व्याख्या करेंगे। असत्य, वाणी के माध्यम से तीव्र कषाय की अभिव्यक्ति है जो अपने आपको भाषा और संकेतों में अभिव्यक्त करती है। वीतराग वाणी रहस्यात्मक अनुभव से उद्भूत होती है जो सत्य की चरम सीमा है जिसको मनुष्य प्राप्त कर सकता है। तीव्र - कषाय- प्रसित वचन पूर्णतया असत्य होता है। मन्द- कषाय-ग्रसित वचन अर्ध- सत्य होता है अर्थात् यह वह सत्य है जो सांसारिक और अलंकृत रूप में प्रकट होता है उदाहरणार्थउदात्त, हितकारी और परोपकारी वचन बोलना । यह निश्चितरूप से रहस्यात्मक सत्य की पराकाष्ठा से नीचे की ओर खिसकना है। पूर्णता प्राप्त तीर्थंकर जो मनुष्यों और दूसरे प्राणियों के उत्थान के लिए उपदेश देते हैं उनको करुणा और उपकार की मन्द कषाय से प्रेरित नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि वे सब प्राणियों के लिए स्वार्थरहित होकर बिना मन्द कषाय के दबाव के बोलते हैं। इससे यह परिणाम निकलता है कि असत्य वचन तीव्र कषाय की अभिव्यक्ति होने के कारण सत्य की ऊँचाइयों से दुगना नीचे आना है। यह हमारी अंतरंग आत्मा और बाह्य व्यवहार तथा सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक उत्थान दोनों को बिगाड़ देता है। अतः विकास के दृष्टिकोण से इसको पूर्णतया त्याग दिया जाना चाहिए।
अब हम असत्य को परिभाषित करते हैं। इसका अर्थ है उस व्यक्ति के द्वारा मिथ्या कथन किया जाना जो तीव्र कषायों जैसे-क्रोध. लोभ, अहंकार और छल-कपट आदि से ग्रसित है । 36 हम यहाँ बता सकते हैं कि इसका अर्थ केवल सत् को असत् कहना ही नहीं है और न ही असत् को सत् कहना है किन्तु इसके अन्तर्गत सत्य के स्वरूप की
36. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 91
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