Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जीवों की संकल्पात्मक हिंसा से अपने आपको दूर रखना चाहिए।" किसी व्यवसाय में व्यस्त होने के कारण, घरेलू कार्यों के करने में और
आत्मरक्षा की योजनाओं में हिंसा करना उसके द्वारा व्यर्थ नहीं माना जा सकता है। वह एकेन्द्रिय जीवों की अर्थात् वनस्पतिकायिक, वायुकायिक
और अग्निकायिक आदि की संकल्पात्मक हिंसा करता है और आरंभ में (घरेलू क्रिया में), उद्योग में (व्यवसाय में) और विरोध में (सुरक्षा के लिए) असंकल्पात्मक हिंसा करता है। इसलिए वह अहिंसा का स्थूलरूप से पालन करता है जो अहिंसाणुव्रत कहा जाता है। यद्यपि वह एकेन्द्रिय जीवों के क्षेत्र में और असंकल्पात्मक हिंसा के क्षेत्रों में अपनी. क्रियाओं को इस तरह व्यवस्थित करता है जिससे बहुत सीमित संख्या में जीवों के अस्तित्व पर प्रभाव पड़े। इन दो क्षेत्रों में (एकेन्द्रिय जीव का क्षेत्र और असंकल्पात्मक हिंसा का क्षेत्र) हिंसा की मात्रा को कम करने का उद्देश्य होता है, पूर्णतया छोड़ने का नहीं, जो मनुष्य के जीवन को जोखिम में डाले बिना संभव नहीं है। फिर भी, हिंसा एकेन्द्रिय जीव के क्षेत्र में और असंकल्पात्मक हिंसा के क्षेत्र में न्यायसंगत नहीं है। अगर हम थोड़ा विचार करें तो हमको ज्ञात होगा कि मनुष्य अपने जन्म से ही हिंसा के अधीन रहता है। फिर भी हिंसा के स्वाभाविक भार को एक दूसरे पर 19. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 75
चारित्रपाहुड, 24 रत्नकरण्ड श्रावकाचार,53 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 332 सागारधर्मामृत, 4/7
अमितगति श्रावकाचार, 6/4 20. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 77
वसुनन्दी श्रावकाचार, 209 योगशास्त्र, 2/21
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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