Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 129
________________ की इच्छा नहीं करता है वह नि:कांक्षित अंग का धारक होता है।104 तृतीय, निर्विचिकित्सा अंग का धारक वस्तु के स्वाभाविक गुणों के प्रति घृणा नहीं करता है। 05 चतुर्थ, अमूढदृष्टि अंग को पालनेवाला व्यक्ति ऐसी अन्तर्दृष्टि विकसित करता है कि वह शुभ और अशुभ मनोभावों के तादात्म्यकरण से अपने को रोक पाता है।106 पाँचवाँ, उपबृंहण अंग आध्यात्मिक शक्ति के विकास को बताता है। 107 छठा, आत्मा को ज्ञान और चारित्र में पुन:स्थापित करना स्थितीकरण अंग कहलाता है।108 सातवाँ, सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नों के लिए या अपनी आत्मा के लिए गहरा अनुराग वात्सल्य कहलाता है।10% आठवाँ, प्रभावना अंग अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाने के उद्देश्य से शाश्वत प्रकाश प्रकट करने के लिए आत्मा का पोषण करता है। 10 लोकातीत (निश्चय)दृष्टि से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ लोकातीत दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताओं के सम्बन्ध में हम कह सकते हैं कि प्रज्ञा के बीज के कारण प्रज्ञावान व्यक्ति शुद्धात्मा में दृढ़ श्रद्धा करता है। परिणामस्वरूप वह सभी शुभ और अशुभ क्रियाओं के साथ असम्बन्धित हो जाता है। वह अपने आपको उनका कर्ता नहीं मानता, इस प्रकार सम्पूर्ण अज्ञान का आधार नष्ट कर देता है। इसके अतिरिक्त अब वह अपने आपको उनका भोक्ता 104. समयसार, 230 105. समयसार, 231 106. समयसार,232 107. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 233 108. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 234 109. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 235 110. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 236 (94) Ethical Doctrines in Jainism sterf Å STERizie fogla त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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