Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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की इकाई 'समय' कही जाती है जो इस प्रकार परिभाषित की जा सकती है- पुद्गल के एक परमाणु द्वारा आकाश के एक प्रदेश से निकटस्थ दूसरे प्रदेश में धीमी गति से जाने के लिए जो अवधि आवश्यक होती है उसको 'समय' कहा जाता है। यह जीवन में व्यावहारिक रूप से अचिन्त्य होता है। यह ध्यान रखना चाहिये कि असंख्य समय एक आँख की पलक खोलने में बीत जाते हैं। जीव (आत्मा) का सामान्य स्वभाव
दर्शन के क्षेत्र में जीव की समस्या अत्यधिक आधारभूत समस्या है। दार्शनिक चिन्तन के उषाकाल से लेकर आज तक महान दार्शनिकों को इसने व्याकुल किया है और उनके द्वारा समर्थित तात्त्विक दृष्टिकोण के अनुसार इसकी विभिन्न धारणाओं को उन्होंने प्रतिपादित किया है। जैनदर्शन के लिए यद्यपि आत्मा के स्वभाव पर गहराई से विचारना कोई नया साहस नहीं है, फिर भी जैन दृष्टिकोण का प्रमुख बिन्दु है- बिना उच्चतम रहस्यात्मक ऊँचाइयों (Mystical heights) को अनदेखी किये और बिना सामान्य अनुभव को मात्र माया (भ्रम) के रूप में निन्दा किये आत्मा की धारणा को स्थापित करना। आत्मा तात्त्विक रूप से अनुत्पन्न तथ्य है; वह छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है और स्वतन्त्र रूप से स्थित है। ज्ञान, भाव"और क्रिया का अनुभव आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार आत्मा सब द्रव्यों में उच्चतम महत्त्व रखता है और सब तत्त्वों में उच्चतम मूल्यवाला है। यह श्रेष्ठ गुणों 95. प्रवचनसार, 2/47 96. Ācārānga- Sūtra 1.5.5, P. 50 97. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 183 98. कार्तिकेयानुप्रेक्षा,184 99. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 204
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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