Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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को मानना, जिसके द्वारा आत्मा अनादिकाल से बंधन में है । इस तरह इन सात तत्त्वों - (1) जीव, (2) अजीव, (3) आस्रव, (4) बंध, (5) संवर, (6) निर्जरा, और ( 7 ) मोक्ष के अध्ययन का उस व्यक्ति के लिए प्रमुख महत्त्व है जिसको मोक्ष की उत्कंठा है।
सात तत्त्वों के स्थान पर कुन्दकुन्द' नौ पदार्थों का उल्लेख करते हैं अर्थात् वे सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को और जोड़ देते हैं । किन्तु वे (पुण्य और पाप) आस्रव और बंध में सम्मिलित किये जा सकते हैं। इसलिए उनकी पृथक् गणना दूसरे आचार्यों, जैसे उमास्वामी और पूज्यपाद द्वारा उचित नहीं मानी गई। यदि कुन्दकुन्द ने ऐसा किया है तो यह केवल स्पष्टीकरण की अभिरुचि के कारण है न कि तत्त्वों की संख्या और अर्थ विकृत करने के दृष्टिकोण से । अब हम तत्त्वों पर विचार करेंगे, क्योंकि ये साधक के आध्यात्मिक जीवन - विकास के आधार हैं।
जीव (आत्मा) तत्त्व
प्रथम, हम जीव तत्त्व से प्रारंभ करते हैं, क्योंकि शेष छह तत्त्वोंअजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष का निरूपण सारा महत्त्व खो देता है, यदि जीव तत्त्व को सर्वप्रथम न बताया जाए । तत्त्वों के स्वभाव को समझने से पहले जीव तत्त्व के स्वभाव को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीव ही बंधनयुक्त होता है ओर जीव ही बंधन से स्वतंत्र होने के लिए प्रयास करता है। बंधन और मोक्ष का चिंतन और उनके बारे में समझना जीव (आत्मा) के अभाव में असंभव है। जीव (आत्मा) का स्वभाव है- चिन्तन करना और प्रश्न करना । इसलिए यह स्पष्ट है कि आत्मा का यथार्थ स्वभाव जानना दूसरे तत्त्वों को समझने से पहले आवश्यक है। शेष छह तत्त्वों की व्याख्या करना आत्मा की जीवन-गाथा
1. समयसार, 13
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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