Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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के लिए लाभदायक है। पूर्व में जीव द्रव्य के स्वभाव को समझाते समय हम संसारी जीव (आत्मा) के स्वभाव पर विचार कर चुके हैं और नैतिक आदर्श के स्वभाव के बारे में विचार-विमर्श करते समय हम जीव (आत्मा) के शुद्ध स्वभाव के बारे में उल्लेख कर चुके हैं, इसलिए उनको यहाँ दोहराना अनावश्यक होगा। अजीव तत्त्व
- अब हम अजीव तत्त्व के बारे में विचार करेंगे जिसका अजीव द्रव्य से भेद किया जाना चाहिए। जैनदर्शन में अजीव द्रव्य जीव के अतिरिक्त पाँच द्रव्यों के अस्तित्व को बताता है। इन पाँच द्रव्यों में से चार द्रव्य- धर्म, अधर्म, आकाश और काल आत्मा के स्वभाव पर अहितकर प्रभाव नहीं डालते हैं। पाँचवाँ, पुद्गल सांसारिक आत्मा पर अनादिकाल से दूषित प्रभाव डाल रहा है और इसके फलस्वरूप यह आत्मा के स्वाभाविक गुणों को अवरुद्ध कर रहा है। इस प्रकार (अजीव द्रव्य के विरोध में) अजीव तत्त्व का अर्थ होना चाहिए केवल पुद्गल, क्योंकि तत्त्वों का आध्यात्मिक महत्त्व है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्त्व पूर्ण सहयोगी है। ____ अजीव तत्त्व का अर्थ है- पुद्गल की बंधन-शक्ति। यदि आत्मा को स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है तो इस पुद्गल की बंधन-शक्ति को हटाना चाहिए। भौतिक शरीर में जीव की दासता सूक्ष्म और अदृश्य पुद्गल से उत्पन्न होती है जो कर्म कहलाती है और बंधन से स्वतन्त्रता की प्राप्ति का अर्थ है आत्मा से कर्मों का पृथक्करण। शेष पाँच तत्त्व जो आत्मा और पुद्गल के साथ आपसी अन्तक्रिया से प्राप्त हुए हैं, वे हैं- (1) आत्मा में पुद्गल कर्मों का आना (आस्रव) और, (2) उनको आत्मसात करना (बंध), (3) कर्मों के आस्रव का रुकना (संवर), (4) पुद्गल कर्मों की
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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