Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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के आस्रव के कारण हैं- मन-वचन-काय में असंगति, अस्थिरचित्त (मन की चंचलता), चुगलखोरी, माप-तोल में बेईमानी, आत्मप्रशंसा
और परनिन्दा। शुभनामकर्म के आस्रव के कारण हैं- मन-वचनकाय में संगति और एकाग्र चित्त। नीचगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं- अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा, दूसरों के अच्छे गुणों पर परदा डालना और उनके अनुचित कार्यों की घोषणा करना। उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं- उच्चकोटि के व्यक्तियों के सामने विनम्रता, और ज्ञान में अत्युत्तम होते हुए भी नम्रता, अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा। अन्तरायकर्म के आस्रव के कारण हैं- दूसरे के दान, लाभ, वस्तुओं के भोग (एक बार उपयोग), वस्तुओं के उपभोग (बार-बार उपयोग) और वीर्य (पुरुषार्थ के प्रयोग) में विघ्न डालना।46 कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध
अब हम कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध के बारे में विचार करेंगे। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी रचनाओं का प्रमुख बिन्दु आध्यात्मिक जाग्रति है। संक्षेप में, वे उन सभी विचारों को व्यर्थ मानते हैं, जो चेतना में अन्तर्निहित दिव्यता के जागरण की तरफ मन को निर्दिष्ट नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप वे किसी अन्य पक्ष पर इतना जोर नहीं देते हैं, जितना आध्यात्मिक जाग्रति पर। ऐसा लगता है कि वे अध्यात्मवाद के प्रसार के लिए अत्यन्त जागरूक हैं, अत: उनकी प्रत्येक अभिव्यक्ति इस एक ही बात को उजागर करती है।
44. तत्त्वार्थसूत्र, 6/22 45. तत्त्वार्थसूत्र, 6/23 46. तत्त्वार्थसूत्र, 6/27
सर्वार्थसिद्धि, 6/27
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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