Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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कषाय से उत्पन्न बंध के प्रकार
आत्मा के साथ कर्मों की अनवरत स्थिति निश्चित अवधि तक बने रहना स्थितिबंध कहलाता है, और कर्मों में जो प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति भरी रहती है, वह फलन-शक्ति-बंध अनुभागबंध कहलाता है। अनुभागबंध व्यक्ति की आत्मा के अनुभवात्मक पक्ष को बताता है, और जगत में दृश्यमान भेदों का कारण है। ये दो प्रकार के बंध कषायों से उत्पन्न होते हैं जो वास्तव में दूषित अवस्था के लिए उत्तरदायी हैं जिनके कारण गमन और पुनर्जन्म होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कषायों के अभाव में योग से बंध बिना किसी सांसारिक परिणाम के होता है। यह उसी समय संभव है जब अनासक्त क्रिया व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरित हो जाती है। कषायरहित क्रिया स्वयं के द्वारा प्राप्त की जाती है
और इसके लिए दुष्कर तपस्या, कठोर आत्म-संयम और ध्यान के सतत जीवन की आवश्यकता होती है। हमारी मुख्य रुचि आचार-सम्बन्धी अध्ययन में है, इसलिए हम चार प्रकार के बंधों के विस्तार में नहीं जाना चाहते, जैसा कि जैनागम में वर्णित है। कषायसहित और कषायरहित योग
__ अब हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि योग व्यक्ति के जीवन में कषायसहित या कषायरहित हो सकता है। दो प्रकार के योग के अनुरूप दो प्रकार के आस्रव होते हैं। ईर्यापथ आस्रव कषायरहित योग को बताता है और साम्परायिक आस्रव कषायसहित योग से उत्पन्न होता है।'' महान
आचार्य अमृतचन्द्र ने कुन्दकुन्द द्वारा रचित प्रवचनसार की टीका करते समय दो प्रकार की क्रियाओं को उपर्युक्त प्रकार से बताया है, किन्तु
10. सर्वार्थसिद्धि, 8/3 पृष्ठ 379 11. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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