Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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गीला कपड़ा चारों तरफ से धूल के कण चिपका लेता हैं। संक्षेप में, आस्रव योग के कारण होता है जब कि बंध योग और कषाय के कारण होता है। पूर्ववर्ती का उदाहरण है सदेह लोकोत्तर अरिहंत की आत्मा, जब कि परवर्ती का उदाहरण संसारी आत्मा है, लेकिन दोनों आत्माओं में आस्रव और बंध का स्पष्टतया भेद किया जाना चाहिए। हम इस भेद को आगे समझाने का प्रयत्न करेंगे। वर्तमान में हम योग और कषाय के स्वभाव को बताने की ओर अग्रसर होंगे। योग का स्वभाव - आस्रव का यथार्थ कारण योग है, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। अब हमको यह समझना है कि दोनों अर्थात् योग और आस्रव एक ही है, क्योंकि मन, वचन और काय की क्रिया के कारण जो परिस्पन्दन
आत्मा के प्रदेशों में होता है, वह कर्मों के आने के साथ एक ही समय में होता है। इसके अतिरिक्त वह प्रयत्न, जो मन, वचन और काय को क्रिया में लगाता है, उससे जो आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है (वह प्रयत्न भी), योग कहलाता है। अरहंत और संसारी आत्माओं में इस प्रकार का प्रयत्न होता है, लेकिन सिद्ध सभी प्रयत्नों से रहित हैं इसलिए योगरहित हैं, क्योंकि उनके मन, वचन और काय की क्रिया नहीं होती है। प्रयत्न के रूप में योग, आत्मा के परिस्पन्दन रूप में योग (मन, वचन और काय की क्रिया) से कारण रूप से संबंधित है। इसलिए कभी-कभी प्रयत्न योग कहलाता है, और कभी-कभी परिस्पन्दन। अत: दोनों ही योग की परिभाषा के दृष्टिकोण से उचित हैं। 3. राजवार्तिक, 6/2/4, 5 4. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 279 5. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 140
गोम्मटसार जीवकाण्ड, 215
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