Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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शरीर का जीवन आत्मा के जीवन से ज्यादा सरल हो रहा है। यहाँ 'कुछ' है जो किसी भी व्यक्ति को कलुषित अवस्था से चिपके रहने के लिए बाध्य करता है और शुद्धात्मा की अनुभूति के लिए अत्यधिक बाधा डालता है। यह 'कुछ' अविद्या, मिथ्यात्व और अज्ञान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व (मूर्छा) आत्मा के सम्यक् जीवन के लिए बाधक है। यह सभी बुराइयों के मूल में है और संसाररूपी वृक्ष का बीज है। यह हमारी सारी क्रियाओं को विषाक्त कर देता है, जिससे जीवन के उच्चतम आदर्श की अनुभूति अवरुद्ध हो जाती है।
इसके अतिरिक्त मिथ्यात्व हमारे ज्ञान और चारित्र की विकृति के लिए भी उत्तरदायी है। मिथ्यात्व की प्रक्रिया से दृष्टि, ज्ञान और चारित्र दूषित हो जाते हैं। जब तक मिथ्यादर्शन (मूर्छा) क्रियाशील है तब तक हमारे प्रयास आत्मारूपी सूर्य की गरिमा को देखने के लिए असफल होते हैं। अत: सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) प्राप्त किया जाना चाहिए जो ज्ञान और चारित्र को सम्यक् बना देगा और मोक्ष- प्राप्ति के लिए प्रेरक होगा। सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् ही आत्मा दुःखों के चक्र से मुक्त होने के लिए प्रारंभिक योग्यता प्राप्त करती है। यदि मिथ्यात्व संसार के मूल में है तो सम्यक्त्व मोक्ष के मूल में है। लेकिन सम्यक्त्व का उदय होने के पश्चात् भी अर्थात् ज्ञान के सम्यक् होने के पश्चात् भी आत्मा की दूसरी प्रवृत्तियों के क्रियाशील होने के कारण सम्यक्चारित्र ग्रहण नहीं हो पाता है। फलस्वरूप पूर्णचारित्र (महाव्रत) के आदर्श को दृष्टि में रखते हुए आत्मा प्रारंभ में आंशिकचारित्र (अणुव्रत) ग्रहण करता है। इस अध्याय में हम सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) के स्वरूप पर विचार करेंगे क्योंकि यह आध्यात्मिक यात्रा के प्रारंभ के लिए मूलभूत आधार है। अगले दो अध्यायों में हम आंशिकचारित्र (अणुव्रत) और पूर्णचारित्र
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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