Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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संसारी जीव (आत्मा) का स्वभाव
प्रथम, संसारी जीव (आत्मा) आवागमन के चक्र में अनादिकाल से चला आ रहा है। इस कारण कहा जाता है कि जीव उत्पन्न होता है और उसका परिवर्तन भी होता है। किन्तु यह पर्यायार्थिक दृष्टिकोण से ही युक्तियुक्त है और द्रव्यार्थिक दृष्टिकोण से नहीं, जो आत्मा की अनश्वरता
और अनुत्पन्नता को दर्शाता है।103 द्वितीय, यह आत्मा सारे शरीर में व्याप्त होकर इसको प्रकाशित करता है, जैसे पद्मराग मणिरत्न दूध के प्याले को पूरा प्रकाशित कर देता है।104 तृतीय, जैनदर्शन के द्वारा संसारी जीव शुभ
और अशुभ क्रियाओं का कर्ता माना गया है। चतुर्थ, यह भोक्ता भी है। संक्षेप में, संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है और स्वयं के द्वारा किये हुए शुभ और अशुभ क्रियाओं का भोक्ता है, ज्ञाता-दृष्टा है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के त्रयी स्वभाव से संबंधित है। इसके अतिरिक्त यह संकोच विस्तार के गुणवाला होता है; यह शरीर की सीमा तक फैलता है; यह ज्ञान; आनन्द आदि विशिष्ट गुणों का स्वामी होता है।105 यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि जैनदर्शन अनन्त आत्माओं की तात्त्विक वास्तविकता को स्वीकार करता है। हम यहाँ सरसरी तौर पर बता सकते हैं कि संसारी आत्मा और मुक्त आत्मा में संबंध अभेद और भेद का है। .. एक ही आत्मा की दो अवस्थाओं (संसारी और मुक्त) में तादात्म्य होता है, किन्तु इन दोनों अवस्थाओं में कर्मोपाधियों के दृष्टिकोण से भेद है जो अनादिकाल से चला आ रहा है वह भी स्वीकार करने योग्य है। संसारी आत्मा अन्तःशक्ति के रूप में सिद्धात्मा है। यद्यपि यह सिद्ध अवस्था वर्तमान में प्रकट नहीं है इसलिए इन दोनों में भेद अखंडनीय है। 103. प्रवचनसार, 2/20-22
पञ्चास्तिकाय, जयसेन की टीका, 17, 18 104. पञ्चास्तिकाय,33 105. सिद्ध-भक्ति, 2
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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