Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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और मुख्यतया शाब्दिक है। नय सिद्धान्त के बिना स्यावाद निश्चितरूप से पंगु होगा। स्याद्वाद के बिना नय सिद्धान्त भी व्यावहारिक मूल्य का नहीं होगा। स्याद्वाद कथन-प्रक्रिया की दिशा में व्यक्तिगत नयों की निरपेक्ष दृष्टियों को नियन्त्रित और सन्तुलित करता है।''31 जैन दार्शनिक समग्रता के एक पक्ष को भी पूर्णतया समझने के लिए या इसके साथ पूर्ण न्याय करने के लिए सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि केवल सात (न अधिक न कम) प्रकार के निर्णय आवश्यक हैं। इसलिए यह सिद्धान्त सप्तभंगीवाद के नाम से जाना जाता है।2 द्रव्य का वर्गीकरण
जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं- पुद्गल (भौतिक पदार्थ), धर्म (गति का सिद्धान्त), अधर्म (स्थिति का सिद्धान्त), आकाश (स्थान) और काल (समय)। अत: जैनदर्शन द्वैतवादी तथा अनेकत्ववादी है, किन्तु यदि वस्तुगत दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो अनेकता एकता के साथ भी बंधी हुई है। कुन्दकुन्द के अनुसार विभिन्न द्रव्य अद्वितीय गुणों से सम्पन्न
हैं तो भी सत् सभी गुणों को समाविष्ट करनेवाला माना गया है, जो • समस्त भेदों को समाप्त कर देता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार सभी
द्रव्य, द्रव्य के दृष्टिकोण से एक हैं जब कि वे अपने गुणात्मक भेदों से भिन्न और पृथक् हैं। समन्तभद्र भी यह कहते हुए समर्थन करते हैं कि एक सर्वव्यापक सत् की धारणा के दृष्टिकोण से सभी द्रव्य एक हैं, किन्तु
31. प्रवचनसार, प्रस्तावना, LXXXV 32. सप्तभंगीतरंगिणी, पृष्ठ 8
33. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका 2/5 . 34. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 236
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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