Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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सकती है। यह अंतरंग और बाह्य प्रेरणाओं से उत्पन्न होती है जिनके कारण आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश को पार करना संभव होता है। इस अर्थ में धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य निष्क्रिय है और गतिरहित हैं, लेकिन जीव और पुद्गल गतिसहित कहे गये हैं अर्थात् ये दो द्रव्य ही क्रियाशील होने में समर्थ होते हैं। सक्रियता कोई भिन्न और स्वतंत्र कोटि नहीं है, लेकिन बाह्य और अंतरंग कारणों से उत्पन्न दो द्रव्यों की विशेष पर्याय है। जीव की सक्रियता कर्मों के बाह्य कारण की अपेक्षा रखती है। इस प्रकार सिद्ध, जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं (वे) कर्मों की अनुपस्थिति के कारण निष्क्रिय हैं। पुद्गल की सक्रियता काल की उपस्थिति के कारण होती है। यह शाश्वत रहेगी, क्योंकि काल किसी भी समय कभी भी अनुपस्थित नहीं रह सकता। इस प्रकार पुद्गल निष्क्रिय नहीं हो सकता। आकाश
आकाश का वह विस्तार जो पुद्गलों व जीवों से, काल से, गति के सिद्धान्त और स्थिति के सिद्धान्त से, (वह) लोकाकाश (विश्वआकाश) जाना जाता है। इसका अलोकाकाश (खालीआकाश) · से भेद है जहाँ कोई भी पाँच द्रव्य नहीं रहते हैं। इस प्रकार लोकाकाश
73. सर्वार्थसिद्धि, 5/7 .. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 74. सर्वार्थसिद्धि, 5/7 75. राजवार्तिक, 2/5/7, 4 76. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98
राजवार्तिक, 2/5/7, 14-16 77. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 78. द्रव्यसंग्रह, 20
सर्वार्थसिद्धि, 5/12 पञ्चास्तिकाय, 90, 91
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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