Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जीव, पुद्गल और शेष द्रव्यों को स्थान प्रदान करने में समर्थ होता है। वह आकाश अपने स्वयं का आधार और सहारा है और इसको स्थान देने के लिए किसी दूसरे द्रव्य की आवश्यकता नहीं होती। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि ऐसा कोई द्रव्य इससे ज्यादा विस्तारवाला नहीं है, जो इसको स्थान दे सके। यदि यह स्वीकार भी कर लिया जाय, तो यह निर्विवाद रूप से हमको अनवस्था दोष की ओर ले जायेगा।" इसके अतिरिक्त यह जानना अत्यावश्यक है कि यदि वस्तु-के-अपनेस्वभाव (Thing-in-itself) के दृष्टिकोण से विचारा जाय तो सभी द्रव्य अपने आप में रहते हैं। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण से कहा जाता है कि सभी द्रव्य आकाश में रहते हैं। गति और स्थिति के सिद्धान्त तिल में तेल की व्याप्ति के समान सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होते हैं। लोकाकाश में धर्म और अधर्म की सर्वव्यापिता होते हुए भी और उसमें जीव, पुद्गल और काल का अस्तित्व होते हुए भी वे अपने निजी विशेष स्वभाव से कभी भी वंचित नहीं होते हैं।82 धर्म और अधर्म
धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में क्रमश: उदासीन निमित्त हैं। धर्मास्तिकाय स्थानान्तरण नहीं कर सकता और दूसरी वस्तुओं में गति उत्पन्न नहीं कर सकता, लेकिन जीव और पुद्गल की गति के लिए केवल उसकी विद्यमानता ही अनिवार्य शर्त होती है, जैसे जल मछली की स्वाभाविक गति में केवल अपनी विद्यमानता से ही सहायक होता है
79. राजवार्तिक, 2/5/12, 2-4 80. राजवार्तिक, 5/12/5 से 6 81. सर्वार्थसिद्धि, 5/13 82. राजवार्तिक, 2/5/16, 10
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