Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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रचना करता है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वभाव का होता है। इसके विपरीत, द्रव्य किसी प्रकार के आधार से रहित होता है और दूसरे असीम गुणों के साथ होता है, अनगिनत अनुबंधों सहित एक संज्ञा होता है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का विषय होता है। इस प्रकार यदि इन दोनों का संबंध प्रकट करने के लिए कोई उपयुक्त प्रत्यय अपेक्षित है तो वह है अभेद-में-भेद का संबंध। अभेद का संकेत प्रदेश की ओर है और भेद का संकेत स्वरूप की ओर है। द्रव्य और सत् का संबंध अद्वितीय, मौलिक और अनुत्पन्न है। प्रमाण, नय और स्याद्वाद
जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य प्रमाण और नय से जाना जाता है।27 प्रमाण द्रव्य को समग्रता से जानने की ओर संकेत करता है जब कि नय प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अनन्त पक्षवाले द्रव्य के एक पक्ष को इंगित करता है। इस प्रकार नय समग्रता के केवल एक पक्ष पर ही विचार करता है। एक वस्तु अपने आप को अनन्त गुणों से अलंकृत करती है। किसी एक पर बल देना और दूसरे को निरस्त कर देना हमें पक्षपातपूर्ण आकलन और द्रव्य की एकान्तिक दृष्टि की ओर ले जाता है।30 : प्रमाण बिना किसी एक और दूसरे गुण के विरोध के सभी गुणों को एक साथ सम्मिलित करता है, उदाहरणार्थ- एक और अनेक, सत् और असत् आदि। द्रव्य के अथाह गुणों में से नय एक समय में एक को 26. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/14 27. तत्त्वार्थसूत्र, 1/6 28. सर्वार्थसिद्धि, 1/6 ... राजवार्तिक 1/6/33 29. स्याद्वादमञ्जरी, 22 30. स्याद्वादमञ्जरी, 27
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त .
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