Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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भी, द्रव्य शाश्वत है। इस प्रकार गुण का निरन्तर प्रवाहशील स्वभाव स्वयं गुण को नष्ट नहीं करता है जिसको यदि स्वीकार किया जाता है तो हम स्मरणशीलता को समझाने में असफल होंगे और परिणामस्वरूप यह हमारे प्रतिदिन के साधारण कार्यों के सम्पादन के विरुद्ध होगा। परिवर्तनशीलतारहित निरन्तरता हमारे अनुभव के स्पष्ट विरोध में होगी। अतः नित्यता परिवर्तन की अस्वीकृति नहीं है, किन्तु इसको अनिवार्य पहलू के रूप में सम्मिलित करती है। इस प्रकार पर्याय की अनुपस्थिति में गुणों पर विचार नहीं किया जा सकता है। गुण का पर्याय से भेद है। प्रथम, एक अखंड द्रव्य में अनन्त गुण सदैव एक समय में विद्यमान रहते हैं, किन्तु अनन्त पर्यायें एक समय में प्रकट नहीं होती है, किन्तु क्रम से प्रकट होती है। द्वितीय, गुण समानता के निर्णय को संभव बना देते हैं जब कि 'यह वह नहीं है' इस निर्णय को पर्यायों की ओर संकेत के द्वारा समझाया जा सकता है। तृतीय, गुणों की अपरिवर्तनीय रूप में व्याख्या की जा सकती है, जब कि पर्यायें परिवर्तनशील मानी गई हैं। दूसरे शब्दों में, एक द्रव्य के गुणों को निरन्तरता के स्वभाव से गौरवान्वित किया जा सकता है, जब कि उत्पादक और विनाशक पदनाम (Designation) पर्यायों के लिए दिए जाते हैं। द्रव्य और सत्
द्रव्य के अनन्त गुणों में से अत्यधिक व्यापक गुण सत् है। द्रव्य अपने स्वभाव में सत्तावान है। द्रव्य असंदिग्ध है, स्वतः प्रमाण है,
19. सर्वार्थसिद्धि, 5/31 20. पञ्चाध्यायी, 1/8
तत्त्वार्थसूत्र, 5/29 प्रवचनसार, 2/6
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त ·
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