Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
View full book text
________________
प्रदेशों की ओर संकेत करने के लिए समझा जाना चाहिये। जीव, धर्म
और अधर्म के अपने असंख्य प्रदेश होते हैं; आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं; काल का एक प्रदेश होता है; किन्तु पुद्गल के संख्यात, असंख्यात
और अनन्त प्रदेश होते हैं। पुद्गल द्रव्य के सिवाय सभी द्रव्य भौतिक गुण- स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से रहित माने गये हैं और केवल जीव के ही चेतनागुण कहा गया है। अत: धर्म, अधर्म, आकाश और काल - चेतनागुण और भौतिक गुण दोनों से रहित हैं। उनको पुद्गल की श्रेणी के अन्तर्गत नहीं समझा जाना चाहिये, लेकिन वे अचेतनता और अभौतिकता की भिन्न कोटि में आते हैं। उनमें से धर्म, अधर्म और आकाश प्रत्येक को संख्या में एक माना गया है जब कि जीव और पुद्गल अनन्त हैं काल .. असंख्यात हैं। इसके अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश और काल स्वभाव से निष्क्रिय हैं और शेष दो द्रव्य क्रियाशील हैं।48 पुद्गल का स्वभाव और कार्य
__जैनदर्शन पुद्गल को यथार्थवादी अर्थ में प्रतिपादित करता है और इसलिए इसका ज्ञान विशिष्ट इन्द्रिय गुणों-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण पर आधारित है, इसमें एक गुण पृथक् रूप से कभी नहीं पाया जाता, किन्तु हमेशा चार के समूह में पाया जाता है यद्यपि प्रगाढ़ता की
45. सर्वार्थसिद्धि, 5/1 46. द्रव्यसंग्रह, 25
तत्त्वार्थसूत्र, 5/8,9,10
Niyamasāra, 35,36 47. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 587
तत्त्वार्थसूत्र, 5/6 48. सर्वार्थसिद्धि, 5/7
पञ्चास्तिकाय, 98
Ethical Doctrines in Jainis
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org