Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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ही चुनता है, लेकिन दूसरे गुणों को भी दृष्टि में रखता है। हम यहाँ बता सकते हैं कि यद्यपि असंख्य गुणों के अनुरूप असंख्य नय हैं जिनको यदि जोड़ा जाय तो वे हमें प्रमाण के द्वारा दिये हुए ज्ञान को प्रदान करने में असमर्थ रहेंगे। दूसरे शब्दों में, सभी नयों का जोड़ प्रमाण के प्रत्यय को समझाने के लिए अपर्याप्त है। इसलिए यह स्वीकार किया गया है कि प्रमाण के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त है वह मानवीय मस्तिष्क का स्वतंत्र कार्य है। इसलिए हम कह सकते हैं कि द्रव्य के स्वभाव को उचितरूप से समझने के लिए प्रमाण और नय दोनों ही आवश्यक हैं।
द्रव्य अनन्त गुणों की खान है, विशेष दृष्टिकोण से जानने के लिए नयात्मक ज्ञान विषयगत (Objective) रूप में दिया गया है और
आत्मगतरूप (Subjective) सें नहीं दिया गया है। यह बहुपक्षवाले सम्पूर्ण द्रव्य को समाप्त नहीं करता है। चूंकि द्रव्य का ज्ञान एक विशेष नय के प्रयोग द्वारा समाप्त नहीं हो जाता है, इसलिए प्रत्येक कथन के पूर्व 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिये जिससे हम दूसरे वैकल्पिक कथनों की संभावना से अवगत हो सकें। यह प्रयोग स्याद्वाद सिद्धान्त जाना जाता है।
स्याद्वाद निःसन्देह अनेकान्तवाद का तार्किक परिणाम है। यह कथन की या सम्प्रेषण की केवल एक विधि है, जो द्रव्य के बहुपक्षवाले ज्ञान को सम्प्रेषित करने के लिए जैन दार्शनिकों द्वारा सोची गयी है। इस प्रकार स्यावाद अभिव्यक्ति की विधि है, अनेकान्तवाद या नयवाद ज्ञान की विधि है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद की भाषा में अभिव्यक्ति है। ए. एन. उपाध्ये ने स्याद्वाद और नयवाद के संबंध को बताने के लिए इस प्रकार कहा है, "स्याद्वाद नयवाद का परिणाम है, नयवाद विश्लेषणात्मक और विशेषरूप से वैचारिक है और स्याद्वाद संश्लेषात्मक
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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