Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08
Author(s): Atmaramji Maharaj
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Page 12
________________ AMERIMEXTREMIRATEXTERTAIRATRAI EXXXX ExexcomxxxxxxRICAXXDXOMXXX DATERIORXXSAXEKH जव हेतु ही नए होगया तो भला फिर फल किसको दिया जाए / अर्थात् जर कर्म करने वाला श्रात्मा ही क्षण विनश्वर मान लिया तो फिर उसको कर्मफल मिलना किस प्रकार माना जा सकता है। अतः निष्कर्ष यह निकला कि यात्मतत्त्व के नित्य होने पर पर्याय उत्पाद और व्यय धर्मयुक्त मानने युक्तियुक्त हैं। अर्यात् श्रात्मद्रव्य तणविनश्वर नहीं किन्तु पर्याय क्षणविनश्वर धर्म वाले हैं। श्रत. श्रात्मतत्त्व शाश्वत, नित्य, ध्रुव, अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अक्षय सुख और अनंत शक्ति वाला मानना न्याय संगत है। श्रय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्म द्रव्य उक गुणों से युक्त है तो फिर यह दुःखी, रोगी, वियोगी, अज्ञानी, मूढ इत्यादि अवगुणों से युक्त क्यों है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जाता है कि-यह सब प्रात्मा की पर्यायें कर्मों के कारण से हुई है। जिस प्रकार निर्मल जल में निकृष्ट पदार्थो के मिलने से जल की निर्मलता वा स्वच्छता / श्रावरणयुक्त होजाती है तथा जिस प्रकार शुद्ध और पवित्र वस्त्र मल युक्त होने से अग्राह्य वा अप्रिय लगता है ठीक उसी प्रकार आत्म द्रव्य भी कर्मों के कारण निज गुणों को श्राच्छादित किए हुए है तथा उन कर्मों के प्रावरण से ही इस की उक्ल दशाएँ प्रतीत होती हैं और फिर यह स्वयं भी अनुभव करने लगता है कि मैं दुखी हूँ, रोगी है, शोगी हूँ, इत्यादि। परन्तु यह कौ का श्रावरण श्रात्मा के साथ तदात्म सम्बन्ध वाला नहीं है क्योंकि यदि इसका श्रात्मा के साथ तदात्म सम्बन्ध मान लिया जाए तब फिर उत्पाद और व्यय PRSMOKIMEXICExxxxxmamimar A RTomTXXM

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