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लाया। वहां पुरोहितानी पुत्र न होने की चिन्ता में उदास मुख बैठी हुई दुखित हो रही थी। उसको चिन्ता से दुखि देख पुरोहित की आंखों में भी आंसू भर आये । वहां की ऐसी घटना देख देव भिक्षु बोलेः
" साधु आया न हार्षया, गया न दीधा रोय ।
कविरा ऐसे निगुर की, कभी न मुक्ती होय" ॥ हे ! पुरोहित तेरे घर साधु आये तौभी हर्षित न होता हुश्रा प्रत्युत रोता है ! यह क्या कारण है ? क्या तेरे घर में भोजन नहीं है ? क्या कोई मृत्यु को प्राप्त हुआ है ? क्या धन सम्पति की हानि हो गई है जिसके कारण तू और तेरी स्त्री दोनों ही रोते दिखाई पड़ते हो, कोई भी कारण हो हमे स्पष्ट बोलो। तब पुरोहित मन को शान्त कर बोला:-" महाराज! इन में से कोई बात नहीं, कौन ऐसा हतभागी है जो कि आप जैसे साधुओं के आने से व्यग्र चित्त होये, चिन्ता की बात तो और ही है, स्वामिन् श्राप तो भोजन ग्रहण करिये"। तब भिक्षु बोले:-" फिर तुम्हें ऐसी कौन सी चिन्ता है जिस से तुम लोग इतने अधीर हो रो रहे हो"। तब भिक्षुओं के बार २ श्राग्रह करने पर पुरोहित बोला:महाराज ! क्या कहे, कह कह कर हार गये, बहुत उपाय किये पर हमारी चिन्ता किसी से मेटी न गई, और प्रारब्ध की चिन्ता को मेट भी कौन सना है, हां श्राप जैसे साधु लोग हमारी चिन्ता को मेट सक्ते हैं और प्राशा होती है कि उस चिन्ता को आप जैसे ही महापुरुष मेटेंगे"।
इस प्रकार पुरोहित के बचन सुनकर साधु बोले:-“भाई, हम जैन साधु हैं । मंत्र, यंत्र, तंत्र, औषध और भैखज्य श्रादि हम कुछ भी नहीं करते हैं फिर तुम कैसे कहते हो कि श्राप चिन्ता
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