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नहीं देकर पहले किनारे होने के लिये नदी के प्रतिकूल प्रवाह में पड़गया । जब मध्यभाग में उसे कष्ट पहुँचा तब उसने अपनी सहचारिणी व कुटुम्बियों को याद किये कि मेरी सहचारिणी ने मुझे बहुत रोका था पर मैं ने नहीं माना । ऐसे ही हे पतिराज तुम भी दीक्षा रूप प्रवाह मे याद करते हुये फिर पश्चाताप करोगे कि अरे मेरी स्त्री ने मुझे संयम लेते बहुत रोका था । परन्तु मैंने उसका कथन नहीं माना । ऐसी अवस्था में वहाँ श्राप न धर्मके रहोगे, न कर्म के। साधुवृत्ति सहल नहीं है महान कठिन है । इस से तो यह अच्छा है कि संसार में रहकर सुख भोगो । इस के सिवाय और क्या है ॥ ३३ ॥ मूल-जहा य भोई तणुयं भुयंगो,
निम्मोयर्णि हिच पलेइ मुत्तो। एमेए जाया पयहंति भोए,
सेऽहं कहं नाणुरामिस्समेको ।। ३४ ॥ छाया-यथा च भोगिनि ! तनुजां भुजंगमो।
निर्मोचनी हित्वा पति मुक्तः । एवमेतौ जातौ प्रजहीतो भोगान् |
तेऽहं कथं नानुगमिष्याम्येकः ।। ३४ ।। अन्वयार्थ-(भोगिनि) हे भोगेच्छका !(च) और (यथा ) जैसे ( भुजंगमः ) सर्प (तनुजाम् ) शरीर से उत्पन्न होनेवाली (निर्मोचनी ) कंचुकी को (हित्वा)
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