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( ६१ ) अन्वयार्थ ---(भोगान्) भोगों को (भुक्त्वा ) भोग कर (च) और 'उत्तकाल में (वान्त्वा) त्याग कर (लघुभूतविहारिणः) इलका विहार (कामक्रमाः) ययेच्छा पूर्वक (द्विजा इव) पक्षि के जैसे यदा ब्राह्मण के जैसे (अामोदमानाः) आनन्दित होते हुए (गच्छन्ति) विचरते है ।। ४४ ॥
भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! अपन संसार में सब ऐश आराम कर चुके हैं कोई भी बात की कमी नहीं रही है। अत एवं अब इन्ह भोगों को परित्याग कर द्रव्य से भाव से हलके वायु के समान यथेच्छा पूर्वक आनन्दित होते हुवे संयम मार्ग में विचरें। जैसे पक्षि यद्वा गुपुरोहित और उसकी स्त्री व दोनों पुत्र संसार को परित्याग कर संयम मार्ग में विचरते है ॥ ४०॥
मूल-इमे य बद्धा फंदंति,
मम हत्थऽजमागया। वयं च सत्ता कामेसु,
भविस्सामो जहा इमे ॥४५॥ छाया-इमे च बद्धाः स्पन्दंते,
मम हस्तमाय्ये आगताः। वयश्च सक्ताः कामेषु,
भविष्यामोयथेमे ।। ४५ ॥ अन्वयार्थ (आर्य) हे आर्य (बद्धाः) सुरिक्षत (इमे) ये भोग (मम) मेरे (च) और 'उपलकणसे तुमारे' (हस्तम् )
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