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(६४) भावार्थ-हे नाथ ! गृध पक्षि के समान काम भोगों को संसार वर्धक जामकर परित्याग कर दें । जैसे सर्प गरुड़ से भयभीत होता हुआ उसके पास से कैसा चंपत हो जाता है । ऐसे ही अपन भी इन्ह काम भोगों से चंपत हो कर संयम स्थान में विचरे ॥४७॥ मूल--नागोव्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए।
एयं पत्थं महारायं, उसुयारित्ति मे सुयं ॥४८॥ छाया--नाग इव बन्धनञ्छित्वात्मनो वसतिं व्रजेत् ।
एतत्पथ्यं महाराज, इक्षुकार इति मे श्रुतम् ।। ४८ ।। अन्वयार्थ--(इतुकार ) इनुकार नाम के (महाराज) हे महाराज (नाग इव ) हाथी के जैसे (बंधनम् ) बन्धन को (छित्वा ) तोड़ कर (अात्मनः) आत्मा के ( वसतिम् ) निवास स्थान को (व्रजेत् ) बावे (एतत् ) यह (पथ्यम् ) हितकारी मार्ग को' (इति मे) मै ने (श्रुतम् ) श्रवण किया था ॥४८॥
भावार्थ-हे इक्षुकार नाम से सुशोभित महाराज ! जैसे हाथी अपना मजबूत बंधन भी जैसे तैसे तोड़ कर बंध्या अटवी को चला जाता है। ऐसे ही आत्मा भी जन्म जन्मान्तर में किये हुए कर्म रूप बंधन को संयम रूप कैने से तोड़ कर शुद्ध प्रात्मा के स्थान पर पहुँच जाती है । उपरोक्त मार्ग मैं ने सुगुरू द्वारा श्रवण किया है इस लिये श्नपन भी जन्म जन्मान्तर में किये हुए कर्म
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