Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020382/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***************** ****** R5855560 4...RA पुष्प नं०१६ e bamashatakshamideantasansadewas PAR B0000 09890-9.. इकुकाराध्ययन सचित्र හන හාහහතs abනිහීයාදු अनुवादक प्रसिद्ध वक्ता पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के शिष्य साहित्य प्रमी पण्डित मुनि श्री प्यारचन्द जी महाराज । 歌来非那那那那那张龄未 RAKHPranadaare श्री जैनोदय प्रकाशक समिति रतलाम सर्वाधिकार सुरक्षित श्री जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस रतलाम, सी.आई. ****** *************** ජ555551Ak47 45 AAA AA AA AAA BC For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ************************** पुष्प नं०१६ इकुकाराध्ययन सचित्र *************************************** अनुवादक प्रसिद्ध वक्ता पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के शिष्य साहित्य प्रेमी पण्डित मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज *************************************** R RRRRRRRRRRRENTIRRITINRITTARITTENANIYANPROPRATARNE प्रकाशक श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति रतलाम सर्वाधिकार सुरक्षित प्रथमावृत्ति ) शाने वीराब्द २४५३ २००० विक्रम १९८३ श्री जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस रतलाम, सी.आई. ***** R For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकमास्टर मिश्रीमल श्रीजैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति रतलाम YEARN मुद्रक:मैनेजर लक्ष्मीचन्द्र संजीतवाला जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस रतलाम ( मालना ) For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन। प्रिय महोदय ! आज वह विषय आपके सामने रख रहा हूँ। जिसका जैनमात्र को अध्ययन एवम् बोध करना आवश्यकीय है। यह विषय श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्र का १४ वाँ अध्याय है । जिस का मूल अर्ध मागधी भाषा में श्रीभगवान महावीर स्वामीने फरमाया । उस में यह प्रकाश डाला गया है कि, इक्षुकार राजा और कमलावती गनी एवम् भृगु पुरोहित और उसकी पतिव्रता पत्नी और दोनों युग्म कुंमारों ने किस प्रकार मुक्ति प्राप्त की। उन्हीं मूल श्लोकों पर शास्त्रविशारद श्रीनलैनाचार्य पूज्यवर श्री १००८ श्री मन्नालालजी महाराज की संप्रदाय के जगत् वल्लभ प्रसिद्धवक्ता-पण्डित मुनि श्री १००८ श्रीचौथमल्लजी महाराज के शिष्य साहित्य प्रेमी पण्डित मुनि श्रीप्यारचन्दजी महाराज ने संस्कृत छाया, अन्वयार्थ और सरल भावार्थ किया है। अतः इस अध्ययन को पाठक पाठिकाओं के लाभार्थ इस संस्था की ओर से प्रकाशित कर मात्र लागत मूल्य में दिया जाता हैं। इस में कही अफ संशोधक की असावधानी से अशुद्धि रह For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गई हो तो पाठक सुधार कर पढ़े और उस अशुद्धि से हमे परिचित करें, जिससे द्वितीयावृत्ति में उसका विशेष ध्यान रखा जाय । श्रीजैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति रतलाम ता०१-३-२७ भवदीय मास्टर मिश्रीमल रतलाम REE ANS For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीतरागाय नमः। संक्षिप्त विवर्णइ स प्रसिद्ध भारतभूमि में सन् ईसा के अनेक वर्ष HAR* पूर्व " इतुकार" नाम की एक प्रसिद्ध नगरी थी। उसके चारों ओर खाई युक्त कोट था । कोटकी रक्षा के लिये छोटे २ किले बने हुए थे । खाई बड़ी गहरी और चौड़ी थी, जो कि स्वच्छ जल से सदैव पूर्ण भरी रहती थी। नगरी में प्रवेश करने के लिये चार दरवाजे थे, उन दरवाजों पर रक्षक लोग सदैव रक्षाके लिये नियत रहते थे। नगरी के मध्य चौक में राजा के बडे २ विशाल महल बने हुए थे । उन महलों से कुछ श्रागे श्रास पास धनिक लोगों के रंग रंगीले सुन्दर गृह और दुकाने श्रेणी बद्ध बनी हुई थीं, जिनकी अद्भुत सुन्दरता देख दर्शक का मन सहसा उनकी ओर आकर्षित हो जाता था। दुकानों के बाहर चौड़ी २ सड़के बनी हुई थीं। सड़कों के दोनों और हरे भरे पेड़ लगे थे जिन की सघन छाया में मनुष्य बंड़ आराम से अाते जाते थे। नगर के व्यापारी लोग अनेक प्रकार की चीजें रत्न श्रादि देश विदेशों से मंगाकर विक्रय करते थे। अनेक चीजें अपने देश के शिल्पियों से बनवा कर बाहर अन्य देशों को भेजते थे । व्यापारी लोग व्यापार में सत्यता का पालन करते थे जिस से उनका व्यापार बढ़ा चढ़ा था । राज्यकी श्रीर से कोई भी ऐसा कर (महसूल) नहीं लगा था जो प्रजाको अ. सह्य हो । सारी प्रजा राम राज्य की तरह सुख चैन से निवास For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) करती थी ! राज्य की ओर से शारीरिक और मानसिक उन्नति के लिये उचित प्रबन्ध किया गया था । किसी जन को किसी भी प्रकार का भय न था । कोई किसी को किसी प्रकार से त्रसित न कर सक्ला था । अनेक धर्मस्थान बने हुए थे, जिन में लोग अपनी २ इच्छानुकूल उन धर्मस्थानों में जाजा कर नियमित समय पर धर्मानुसार श्राराधना करते थे । इस प्रकार तमाम मनुष्यों का समय बड़े आनन्द के साथ व्यतीत होता था । नगर के बाहर अनेक बाग़ बगीचे लगाये गये थे जिन में अनेकों प्रकार के वृक्ष अपनी हरी भरी छटा दिखा रहे थे । चारों ओर फूलों की महक वायु में संचरित हो रही थी । स. न्ध्या समय नगर निवासी जन अपने काम काज से निबट कर "" उन चाटिकाओं में आ आकर सारे दिन की थकावट को दूर कर अपने मस्तिष्क को विश्राम देते थे । मध्यान्ह समय में जब ग्रीष्म ऋतु अपना प्रचण्ड रूप धारण करती थी और सूर्य देव के द्वारा सारी भूमि श्रग्निकी तरह तप्त हो जातीथी तब उस समय में पथिक लोग ग्रीष्म के प्रचण्ड शासन से बचने के लिये उन वाटिकाओं में वृक्षों की सघन ठण्डी छाया का श्राश्रय लेते थे और वे वृक्षभी परोपकारी संत की तरह स्वयं हवा, धूप और वर्षा सहन करते हुए आये हुये पथिक लोगों को श्राश्रय देते थे ! पशुभी ग्रीष्म की कड़ाई से व्याकुल हो कर छाया में बैठने के लिये इधर उधर घूम फिर कर वृक्षों का आसरा ले रहे थे। पक्षी गणभी उड़ता छोड़ पानी से प्यासे होकर कठिन धूप से घबड़ा कर वृक्षों की डालियों में मुँह छिपाये बैठे थे । ग्रीष्म ऋतु के ऐसे ही प्रचण्ड मध्यान्ह समय में उसी ईनुकार " नगरी के बाहर जन शून्य राह में दो साधु जो कि - For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३ ) मुंह पर मुँह पत्ति, हाथमें पात्र, कुक्षि में रजोहरण, नंगे नंगे पैर, नियमित श्वेत कपड़े धारण किये हुए थे जा रहे थे। रास्ते में जन साधु जनों को अत्यन्त प्यास लगी । पर उन के पास पीने को पानी नहीं था और न वे कुप्रा , तालाब, नदी आदिका पानी पी सक्ने; इस से उनका कराठ शुष्क होता जा रहा था, अधिक प्यास के सताने से वे बोल न सक्ने थे और न चल सक्ते थे। कुछ आगे चलते चलते मूञ्छित हो एक पेड़ के नीचे गिर पड़े। कुछ समय के बीतने पर चार गोपालक (ग्वालिये) गौ, भैसों को चराते हुए वहां श्रा निकले । उन्हों ने उन साधुओं को मूर्च्छित अवस्था में पड़े हुए देख कर विचार किया कि, ये श्वास तो कुछ २ ले रहे हैं पर मत्यु के तुल्य क्यों पड़े हुए हैं ? निदान इनको किसी एक दुख से पीड़ित हो मूच्छी आगई है, इस लिये इनको सावधान करने के लिये अपने पास में तक मिश्रित जल भरा हुआ है उसे इनके मुँह पर छिड़के" । निदान उन्हों ने ऐसा ही किया और वे दोनों साधु कुछ सावचेत हुए। तब उन्हों ने ग्वालियों को ऐसा करने से मना किया कि, "ऐसा मत करो। हमारा कल्प नहीं, हमको प्यास बहुत जोर से लग रही है यदि तुम्हारे पास तक वंगरः कुछ हो तो हमे थोड़ा दे दो जिसे हम पी कर चित को शान्त्वना करें" यह सुन कर उन ग्वालियोंने कहा कि-" हाँ हमारे पास तक मिश्रित जल भरा हुआ है आप कृपा कर ग्रहण कीजिये" । उन चारों ही ग्वालियों ने उच्च भाव से उन्हें जल का दान दिया पर उनमें से दो ग्वालियों के दिल में फिर से कुछ कपटता था गई जिससे उन दो ग्वालियों के स्त्रीत्व वेद का बन्धन पड गया जिससे एक तो कमलावती रानी और दूसरा यशा स्त्री हुई, पर चारोही ने दान देते समय पडत संसार For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवश्य कर लिया । तदनन्तर उन दोनों साधुओं ने उन चारों ही गोपालकों को सब से श्रेष्ठ अहिंसा परमोधर्मः और दान के महात्म्य का दिग्दर्शन कराया । मुनि लोग वहां से विहार कर आगे दूसरे नगर को गये और यो धर्मोपदेश देते हुए अपना कालक्षप करते रहे। इधर वे चारी ही गोपालक दया और दान पर विशेष लक्ष देते हुए समय व्यतीत कर रहे थे । ये छःओं व्यक्ति अपना २ आयुष्य पुण्यानुसार भव करते करते जो कि आगे कहेगे, इस के अगले भव में एक ही स्वर्ग के ही " नलनी गुल्म" नाम के विमान में जन्म ले देवता हुए। वहां उन छःओं में से एक देव अपना आयुष्य पूर्ण कर ईचुकार नामकी नगरी में ईक्षुकार नाम का राजा हुआ। दूसरा देव वहां से मर कर इसी राजा के कमलावती नाम की रानी बनी । तीसरा देव इसी नगरी में भृगु ' नाम का राज्य पुरोहित हुा । और चौथा देव इसी पुरोहित की पत्नी ' यशा' हुई । शेष दो देव उस स्वर्ग के विमान में सुख मय समय बिता रहे थे। भृगु पुरोहित धन, सम्पति से परिपूर्ण और सब ही तरह के सुखों से अपना जीवन व्यतीत करते थे । स्त्री श्राज्ञाकारीणी और सुन्दरता में मनोहारिणी थी। नौकर चाकर आदि की कोई कमी न थी। सब सुखों से भरपूर होने पर भी संतान सुख का अभाव था। बस इसी दुःख की चिन्ता राक्षसी रात दिन सताये रहती थी। पुत्र कामना चित्त को व्याकुल किये डालती थी। खाते, पीते, सोते, जागते; उठते, बैठते यही चिन्ता चित्त पर चढी रहती थी। इससे प्राधिक दुःख भृगु पुरोहित की पत्नी को संतान न होने का था । सच है दुःख होना ही चाहिये क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस घर में संतान नहीं वह घर सूना सा दिखाई पड़ता है। गृहस्थी को चाहे जितना कष्ट हो पर संतान हो तो उसे कष्ट नहीं सताता। वह दुःखो को संतान के सामने तुच्छ समझता है। बेचारी भृगु पत्नी इस बात से और भी अधिक दुःखी थी कि उसे सब बन्ध्या कह कर पुकारते थे और प्रातःकाल में उस का मुँह तक नहीं देखते । इसी चिन्ता में उन दोनों प्राणियों के रात दिन बीतने लगे। इधर उन दोनों देवों का प्रायुष्य पूर्ण होने को था. उन्हों ने परस्पर विचार किया कि अपन लोग यहां देव हुए इस का मुख्य कारण यह है कि पिछले भव में मोक्ष के लिये संयम धारण किया था, अत एव अपन लोगों को भविष्य भव में भी संयम लेना उचित है, पर यह तो बिचार करो कि यहां से मर कर कहां जन्म लेंगे। उन्हों ने अवधि ज्ञान के द्वारा जाना कि ईक्षुकार नाम की नगरी में भृगु नाम के राज्य पुरोहित के घर जन्म लेंगे । पुत्र की लालसा में प्राकर माता पिता सद्धर्म के कट्टर विरोधी बन अपने को धर्म से विमुख करेंगे। इस से तो यह अच्छा होगा कि पाहले वहां जाकर उन्हें स्पष्ट कह दें कि तुम्हारे पुत्र तो होंगे पर वे संयम लेंगे, अतः उन्हें रोकना मत । ऐसा उनसे बचन ले आवें । ऐसा बिचार कर दोनों देव मृत्यु लोक में उतरे और साधु वेष धारण कर भृगु पुरोहित के यहां श्राहार पानी लेने के बहाने से आये। इन श्राते हुए साधुओं को देख पुरोहित मन में बड़ा प्रसन्न हुआ और अपने को धन्य समझने लगा कि आज ऐसे महापुरुषों का मेरे घर पर आगमन हुआ। पुरोहित ने साधुओं के चरण स्पर्श किये और बोला-"स्वामी पधारिये, पाप ने बड़ी कृपा करी, मेरा घर पवित्र किया, आज आप इस सेवक के हाथ से भोजन ग्रहण करें"। ऐसा कह कर उन दोनों साधुओं को भोजनालय में For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाया। वहां पुरोहितानी पुत्र न होने की चिन्ता में उदास मुख बैठी हुई दुखित हो रही थी। उसको चिन्ता से दुखि देख पुरोहित की आंखों में भी आंसू भर आये । वहां की ऐसी घटना देख देव भिक्षु बोलेः " साधु आया न हार्षया, गया न दीधा रोय । कविरा ऐसे निगुर की, कभी न मुक्ती होय" ॥ हे ! पुरोहित तेरे घर साधु आये तौभी हर्षित न होता हुश्रा प्रत्युत रोता है ! यह क्या कारण है ? क्या तेरे घर में भोजन नहीं है ? क्या कोई मृत्यु को प्राप्त हुआ है ? क्या धन सम्पति की हानि हो गई है जिसके कारण तू और तेरी स्त्री दोनों ही रोते दिखाई पड़ते हो, कोई भी कारण हो हमे स्पष्ट बोलो। तब पुरोहित मन को शान्त कर बोला:-" महाराज! इन में से कोई बात नहीं, कौन ऐसा हतभागी है जो कि आप जैसे साधुओं के आने से व्यग्र चित्त होये, चिन्ता की बात तो और ही है, स्वामिन् श्राप तो भोजन ग्रहण करिये"। तब भिक्षु बोले:-" फिर तुम्हें ऐसी कौन सी चिन्ता है जिस से तुम लोग इतने अधीर हो रो रहे हो"। तब भिक्षुओं के बार २ श्राग्रह करने पर पुरोहित बोला:महाराज ! क्या कहे, कह कह कर हार गये, बहुत उपाय किये पर हमारी चिन्ता किसी से मेटी न गई, और प्रारब्ध की चिन्ता को मेट भी कौन सना है, हां श्राप जैसे साधु लोग हमारी चिन्ता को मेट सक्ते हैं और प्राशा होती है कि उस चिन्ता को आप जैसे ही महापुरुष मेटेंगे"। इस प्रकार पुरोहित के बचन सुनकर साधु बोले:-“भाई, हम जैन साधु हैं । मंत्र, यंत्र, तंत्र, औषध और भैखज्य श्रादि हम कुछ भी नहीं करते हैं फिर तुम कैसे कहते हो कि श्राप चिन्ता For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेटेंगे" : पुरोहित बोला:-" नहीं २ ! महाराज श्राप के ज्ञान व मुदृष्टि से ही चिन्ता मिट सक्ती है। आपके वाक्यों द्वारा ही चित्त को शान्त्वना हो जाती है। महाराज! श्राप जैसे पुरुषों के दर्शन हो गये, अब भी फिर श्राप के भक्त की चिन्ता क्या दूर न हो सकेगी? तब और किससे आशा की जावेगी"। ऐसा कह कर चरणों पर शिर झुका दोनों पैर पकड़ लिये । साधु बोले:-"सुना, सुना अपना सब हाल सुना, क्या ऐसी तुझ चिन्ता है " । प्रोहित बोला:-" स्वामिन् ! इस घर अपार सम्पति है, खाने पीने आदि कोई किसी बात की कमी नहीं । स्वामिन् ! इस घर में अभी तक एक पुत्र रत्न पैदा नहीं हुश्रा । पुत्र बिन पत्नी की गोद सूनी है। स्वामिन् ! पुत्र बिन घर की शोभा नहीं, बिन पुत्र घर समशान तुल्य माना जाता है । इन सब बातों से भी अधिक बात यह है कि श्राप की इस श्राचिका को लोग बांझ बांझ कह कर मुंह तक नहीं देखते हैं । मुझे भी लोग नियुत्री कह कर पुकारते हैं । बस इसी की चिन्ता हमें रात दिन सताये रहती है । जो खाते पीते हैं वह यथा योग्य रुचता नहीं है" | साधु बाल-हमें बतलाना तो अकल्पनीय है तथापि दया लाकर तेरी चिन्ता दूर कर दे तो जैसा हम कहे वैसा करने को तैयार हो क्या" ? पुरोहित बोला:"स्वामिन् ! यह आपने क्या कहा ! हम तो श्राप के दास हैं, जैसी श्राप प्राज्ञा करेंगे वैसा ही करने को तैयार हैं, यह बात प्रतिज्ञा के साथ कहते हैं " । साधु बोलेः-"अच्छा, जब तो एक पुत्र क्या है जाश्रो दो पुत्र होंगे. पर प्रतिज्ञा का स्मरण रखना कि वे तुम्हारे दोनों पुत्र संसार परित्याग कर साधु बनेगे अतः उन्हें रोकना मत" । पुरोहित बोला:-स्वामिन् ! श्राप के बचन मुके फले, मेरे दो पुत्र हो, क्या स्वामिन् , अाप को हमारा विश्वास नहीं ? कौन ऐसा दुष्ट है जो प्रभु उपासक बनने वाले को रोके, For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे ऐसे भाग्य कहां है जो कि मेरे कुल में से प्रभ भक्त हो! स्वामिन् ! हम उन्हें कभी भी न रोकेंग, भले ही व गर्भ में से निकलते ही साधु हो जावे. यह उन की इच्छा। यह बात श्राप को प्रतिज्ञा के साथ कहते हैं कि हम उन्हें कदापि नहीं रोकेगे । हम तो केवल वांझ के कलंक को दूर होना ही पर्याप्त समझते हैं। इस प्रकार कथनोपकथन के बाद दोनों देव जंगल में पा स्वर्ग में जा विराजे। कुछ समय के पश्चात् वे दोनों ही देव अपना प्रायुष्य पूर्ण कर उस भृगु पुगेहिल का पत्नी " यशा" के गर्भ मे श्राय । जब मासिक श्रावर्तन के समय रजोदर्शन न हुआ तब उस को निश्चय हो गया कि मैं गर्भवती हूं। ऐसा निश्चय होने पर अपने श्राराध्य पतिदेव को कहने लगी कि " जो वे साधु कह गये थे वही मुझे निश्चय हो चुका, इससे अाजही से ऐसी बातों पर पूरा ध्यान रखना अपना ध्येय समझंगी, जिनका जानना और पालन करना प्रत्येक स्त्री का कर्तव्य है" । पुरोहित अपनी पत्नी के आशा पूरित बचन सुन कर बड़ा प्रसन्न हुश्रा और कहने लगाः-" प्रिये ! प्रथम तो जैन साधु कहते ही नहीं, यदि हमारे भाग्य से उन्हों ने कह ही दिया है तो वैसा अवश्य ही होगा। यशा का गर्भ दिन २ बढता गया और नव महीने साढ़े सात अहो रात्रि पूर्ण होने पर युग्म सन्तान का शुभ मुहूर्त में जन्म हुआ दो पुत्रों का जन्म होना सुन कर माता पिता और कुटुम्बी जनों का हृदय सहज ही में अानन्द सागर में हिलोरे मारने लगा। पिता और समस्त पारिवारिक लोगों ने बड़ा उत्सव मनाया। उन्होंने श्रद्धा और प्रेम से दीन अनाथ लोगों को अनेक प्रकार के दान दिये । पुरोहितजी के सब मित्र स्नेही और बन्धु बान्धयों ने भी पुत्र जन्म के इस आनन्द में उनको बधाई दी । सब ने मिल For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगु चरित्र |चित्र परिचय के लिये, वन्दनेके लिये नहीं है। दो साधु रास्ता भूलने पर एक छोटा साधु पहाडी पर चढ कर समीप गाँव का मार्ग और गांव दिखा रहा है। Lakshmi Art Bombay, 8. For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर आशीर्वाद दिया कि " ईश्वर कृपा से यह संतान चिरायुः हो और भविष्य में ये बालक दीर्घायु हो कर खूब यश और मान प्राप्त करें" । यद्यपि यह श्राशीर्वाद केवल धर्तमान समय के विचारों पर दृष्टि रख कर साधारण रीति से ही दिया गया था। जैसा कि प्रायः होता है; तथापि समय पाकर वह सार्थक हुा । पहिले दिन “ जात कर्म " किया , दूसरे दिन जाग्रण हुश्रा, तीसरे दिन बालकों को चन्द्र सूर्य के दर्शन कराये गये । इस प्रकार एक के बाद एक संस्कार को करते हुए दस दिन पूरे हुए । ग्यारहवें दिन अशौचकर्म से निवर्तन हो बारहवें दिन सम्वन्धियों को भोजन खिला पिला कर दोनों युग्मपुत्रों के नाम देवभद्र और यशोभद्र रखे गये । अब व दोनों पुत्र द्वितीय चन्द्रवत् अवस्था में बढ़ते गये । यों बढते २ जब पांच छः वर्ष के होने आये तब माता पिता को पिछली बात का खयाल श्रागया कि जो साधु अपने को पुत्र होने का कह गये थे वे पुत्र तो हो गये पर साथ में यह भी कह गये थे कि वे दोनों पुत्र संसार परित्याग कर साधु बनेंगे । अतःकहीं ऐसा न हो कि ये पुत्र अपन को छोड़ साधु बन जावें । इस लिये इसका उपाय अभी से ही ढूंढना अनुपयुक्त न होगा । अतएव प्रथम तो यह उपाय है कि यह शहर छोड़ कर किसी एक घने जंगल में जाकर नि. वास करें क्योंकि उन जैसे साधु तो इस शहर में हर समय अाते ही रहते हैं और उनकी संगति भी ऐसी है कि क्षणमात्र में ही संसारी को वैरागी बना देती हैं। इस लिये अपन इन पुत्रों को लेकर उस घने जंगल में चल बसे जहां कोईभी साधु ऐसा न पा सके। ऐसा विचार कर चारों व्यक्ति ने घने विपिन में जाकर For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीलों की झोंपड़ियों के बीच एक मकान बन्धा लिया । वे उस जं. गल के मकान में निर्विघ्नता के साथ आनन्द में पुत्रों के साथ जीवन व्यतीत करने लगे। पुरोहितजी पुत्रों को शिक्षा स्वतः देने लगे। पुरोहित के हृदय में कभी २ यह भी तरंग उठती रहती थी कि कदाचित् वैसे साधु भूले भटके इधर न चले आवे, उन साधुलोगों को देखते ही कही ये बालक साथ न चले जावे. इस लिये उन साधुओं का भयंकर विपरीत परि. चय पुत्रों को दिखा देना अनुचित न होगा। ऐसा विचार कर वह पुरोहित सन्ध्या समय उन दोनों पुत्रों को समझाने लगा:" पुत्रों ! मेरी एक बात जरूर ध्यान में रखना नहीं तो कभी मार जाओगे" पुत्रोंने कहा:-" पिताजी ! वह कौनसी ऐसी भयानक बात है हमें अवश्य उस बातसे परिचय करादीजिये" तब पिताने कहा:-'पुत्रों ! तुम लड़कों के साथ आश्रो, जाश्रा, खेलो. कूदो, कोई हानि नहीं, परन्तु उन लोगों का संग मत क. रना जो कि मुंह पर एक कपड़ा पाहने हुए होते हैं, हाथ में एक कपड़े की झोली होती है उस में पात्र रखते हैं. पात्रों में चाकू, छुरी, कतरनी, तमंचे रखते हैं। जब वे चलते हैं तो नीची नि. गाह करते हुए चलते हैं । यदि कोई बालक उनके निगाह में अाता हैं तो पहिले वे उस बच्चे से बड़े प्यार से मधुर स्वरसे बो. लते हैं। और मिष्ट पदार्थ आदि के खाने का प्रलोभ भी दिखाते हैं इस से वही बच्चा उन के पास चला जाता है फिर वे नामधारी साधु उन्हें धोखा देकर जंगल में ले जाते हैं और वहां उन बालकोंके शरीर परका पहना हुअा अाभूषण उतार कर उन्हें मार डालते हैं । सो तुम सावधान रहना । पुत्रों ! हमने तो तुम्हें चता दिया है यदि इस उपरान्त भी तुम उन लोगों के पास चले ही गये तो अवश्य ही मारे जाओगे, इस में हमारा कुछ दोष नहीं, For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) हम तुमको समझा चुके ।" ऐसी बात सुनते ही डरसे दोनों पुत्र लपक कर माता पिता की छाती से चिपट गये और थर थर कां. पते हुए रोते रोते बोले कि." हे पिताजी ! गांव बाहरतो दूर रहा पर घरसे बाहर तक भी हम नहीं निकलेंगे।" पिताने समः झाया-" नहीं २ पुत्रो, इतने अधीर नहीं होना चाहिये प्रथम तो ऐसे विपिन में वैसे साधु आवेंगे ही नहीं यदि आवे तो ध्यान रखना उनके पास जाना मत और दौड़ कर अपने घर के भीतर चले पाना । और इस बातका पूरा ध्यान रखना। पिताकी इस शिक्षा को मानकर दोनों बालक घर के पास पास ही खेलते थे और दूर न जाते थे। __ कुछ दिन बीतने पर उसी जंगल में होकर दो साधु किसी नगर की जा रहे थे, परन्तु वे वहां रास्ता भूल कर विपथ में इधर उधर भटकने लगे । शिष्य ने कहा-“गुरूजी ! मध्यान्ह का समय पा रहा है, प्यास बहुत जोर से सता रही है, अतःऐसा कोई उपाय करें जिल से गांव पास आने पर तक आदिकी 'या. चना कर चित्तको शान्त्वना दें"गुरूने कहा-" क्या करें, अशन रास्ता भूलगये, अब ऐसा करो कि उस टेकरी पर चढ़ कर श्रास पास देखो कोई गांव निगाह पड़े तो वहां चले।" पेसाही किया कुछ दूरी पर एक छोटासा गांव दिख पड़ा । उसी गांव में भगु पुरोहितभी रहता था। वे दोनों साधु बहां से चलकर उसी गांव में आये और उत्तम घरकी शोध करते २ पुरोहित के घर के पास ही श्रा निकल । उन पाये हुए साधुओं को देखते हो पुरोहितकी अांखें चढ़ (गई और मनही मन कहने लगा-अरे इस छोटेसे गांव में भी यह लोग आ गये ! इसको भी इन्होंने नहीं छोड़ा इनके दुःख से तो शहर छोड़कर यहां आये । यहां पर भी ये यम आ खड़े हुए। खैर अा गये तो इनके पात्र प्रा. For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) हार, पानीसे यहीं भरदो ताकि पर्याप्त आहार पाने से और घरों में नहीं भटकेंगे, नहीं तो आहार पानी के लिये इधर उधर अन्य घरों में भटकते हुए कहीं पुत्र न मिल जाय । बस इसी अभिप्राय से पुरोहित बोला-" महाराज! यहां पधारो, यह ब्राह्मण का घर है"। तब वे दोनों साधु वहां गये । दही, दूध, रोटी और धोवन पर्याप्त उन्हें बहरा कर पुरोहित बोला-" महा. राज! अब और घरों में मत फिरिये यदि कुछ कमी हो तो यहां से और ले लीजिये क्योंकि मेरे दो पुत्र घड़े कुपात्र और क्रोधी हैं, साधु, सन्तों को देख कर उनके कपड़े फाड़ डालते है । उन पर पत्थर फेंकते हैं। यदि उनके पास लकड़ी हो तो उसने मारते है। गालियां देते हैं। ऐसे अनेक तरह से कष्ट पहुंचाते है अतः श्राम रास्ता छोड़ कर किसी एक गली के रास्ते से निकल आप जंगल में जाकर वहां भोजन करना। गांव में कहीं न ठहरना"। पुरोहित के कहने से वे दोनों साधु गली के रास्ते से जंगल की ओर प्रस्तान कर रहे थे तो जिस गली से जा रहे थे उसी में श्रागे दोनों बालक खेल रहे थे। यकायक उन साधनों पर बालकों की दृष्टि पड़ी तो चमक कर एक ने कहा-" अरे भ्राता! यशोभद्र ! दौड़ो २ भागो भागो। आज मौत की निशानी श्रा गई है । पिता ने जो चिन्ह बताये थे उन्हीं चिन्हों से चिन्हित बाल घातक श्रा रहे हैं। दोनों लड़के रास्ता दूसरा न होने से अपनी जान ले जंगल की और भागे जा रहे थे । साधु स्वाभाविक ही उनके पीछे पीछ जा रहे थे। लड़कों ने भागते हुए पीछे की ओर देखा तो जान पड़ा कि वे साधु उन्हीं की ओर जल्दी २ आ रहे हैं । इस से लड़कों ने सचमुव ही जान लिया कि ये साधु अपनी तरफ ही अपने को पकड़ने के लिये पा रहे है। ज्यो ज्यो उन्हें पास पाते देखत त्यों २ बच्चों की जान अधिक हैरान होने लगती थी। For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३ ) इधर दौड़ते २ थक गये तब एक घड़ के झाड़ पर जो समीप ही था उस पर जल्दी से चढ़ गये और पत्तों की आड़ में अपने को छिपा कर बैठ गये और एक दूसरे से कहने लगे "भाई ! खांसना मत, चुपचाप यहां छिपे रहो, जब ये बाल घातक यहां से आगे चले जावेंगे तब अपन यहां से नीचे उतर कर चले चलेंगे। उधर दोनों साधु नीची दृष्टि से देखते हुए उसी वट वृक्ष के नीचे आकर आपस में कहने लगे कि यह जगह ठीक है, अतः श्राहार पानी यहीं खा, पी लो । उन लडको ने यह सुना कि इन को यहीं मार कर भागे चलो। बस फिर क्या था, वे बच्चे और भी अधिक थर २ कांपने लगे। उन साधुओं ने पात्र खोलने की चेष्टा की तो लड़कों ने जाना कि इन्होंने अपन को देख लिया है जिस से ये पात्रों में से मारने के लिये चाकू, छुरी आदि निकाल रहे हैं। आगे पात्र खोलने पर दूध, दही, रोटी आदि नजर आई तब बच्चों ने विचार किया कि पात्रों में से चाकू छुरी तो निकली नहीं इनके बजाय दूध, दही, रोटी निकली जो कि ऐसी अपने घर सा कर आये है हो न हो ये चीजें सब अपने घर की ही मालूम होती है। इतने ही में गुरू ने शिष्य से कहा-"बेटा, ध्यान रखना. यहां कीड़ियां बहुत है"। कुछ ही देर पीछे बोले-" देख २ यह कीड़ी पांव नीचे न पा जावे, इसे बहुत आसानी से पूंजनी से दूर करो"। इस प्रकार का दृश्य उन दोनो लड़कों ने ऊपर से देख कर हृदय पर हाथ घर विचार किया कि ये साधु कोड़ी तक को तो मारते ही नहीं तो फिर ये बालहत्या कैसे करेंगे । इस से स्पष्ट मालूम होता है कि जो पिता ने हम को कहा था वह असंभव सा प्रतीत होता है । ऐसा बिचारांश करते ही उन लड़कों को जाति स्मरण ज्ञान हो पाया। उस समय ज्ञान के द्वारा अपने पिता दी For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) की करतूति का परिचय मिला और सब पिछले भवों की बात से परिचित हो कर झाड़ से नीचे उतरे। तदनु साधुओं के पास पाकर बोले- स्वामिन् श्राप के भय से इतनी देर छिपे हुए थे। अब हमें ज्ञान हो चुका कि आप छः ही काया के जीवों के रक्षक हैं और साथ मोक्ष दाता भी हैं। संसार असार है। कोई किसी का नहीं। कौटुम्बिक जन सब स्वार्थी हैं । किये हुए कर्मों का फल श्राप ही अकेला भोगता है दूसरा कोई भी नहीं भोगता। अत एव हे स्वामिन् ! माता पिता को पूछ कर श्राप के पास मौनवृत्ति साधुवृत्ति ग्रहण करेंगे, ऐसा कह कर घर की ओर श्राने लगे। उधर बच्चों के मा बाप इन को ढूंढने के लिये इधर उधर पुकारते हुए फिर रहे थे। इतने ही में आते हुए दोनों बच्चों को देख जोर से पुकारा-" अरे भो पुत्रो ! दौड़ कर जल्दी आओ श्राज गांव में बला श्रागई थी"। पूत्रों ने कहा "क्यों, कैसी बला" । पिता ने कहा-'' जो मैं तुम्हे हमेशा सायंकाल को उन बाल घातको का चिन्ह बताता था, वे आज इस गांव में भी श्रा निकले. क्या तुम्हे बे मिले तो नहीं"? पूत्रों ने कहा--" वे तो मिल गये"।" पिता ने पूछा." अरे ! उनकी बात कुछ मानी तो नहीं । पुत्रों ने कहा-" मान ली" पिता ने पूछा-" अरे ! क्या मानी " । पुत्रों ने कहा-" साधु बनने की बात ठान ली"। पिता ने कहा-" अरे पुत्रो ! तुम्हे उन साधुअोने मधुर शब्दों से तुम्हे जाल में फंसा लिया है, पर ये लोग पहले तो ऐसाही करते हैं फिर समय पाकर उनका गला घोट देते है "लडकोने कहा-"बस, बस, पिता रहने दो अब प्रापकी इन मिथ्या वातों को रहने दीजिये, हम आपकी बात अब न मानेगे; आपने साधुअोके विषय में जो बाते बताई हैं । इन साधुओ में नहीं है। हमने आखों से देखा इन साधुओं के For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कार्यों को देखा है, वे तो प्रत्यक्ष मोक्ष दाता ह ; पिताजी. यह संसार तो स्वार्थी है ; अब हम इस संसार के स्वार्थी जनों में रहना नहीं चाहते ; अब आप हमें तो साधु बनने की आज्ञा प्रदान करिये । " पुरोहित बोला:-"पुत्रों ! कुछ सोचो , विचारो; बोलने में इतनी जल्दी मत करो। तुम अभी अबोध बालक हो, कोमल अवस्था है, बुद्धि परिपक्क नहीं, संसार सुख देखा नहीं, श्रभी तुम गृहस्थाश्रम में प्रवेश हुए नहीं. संसार के सुखों का अनुभव किया नहीं। तुम्हारी अवस्था अभी विद्या प्राप्त करने की है इस के पीछे युवावस्था हो जाने पर गृहस्थी बनकर विषय सुखको भोगो फिर सन्तानादि हो जाने पर यदि साधु बनना चाहो तो साधु बन जाना।" लड़कों ने कहा:-" पिताजी ! पौगालिक सुख तो क्षणमात्र के हैं. इसके बाद वही व्यवस्था है। जैसे किसी तलवार की धारा पर शहद बिन्दु चाटने का कुछ थोड़ासा सुख है पर फिर अन्त में जीभ कट जाने का महा भयं. कर दुख होता है। इस लिये ऐसे सुखों पर हमारी इच्छा कदापि नहीं, हम तो उसी सुख की चाहना कर रहे हैं जिस मे लवलेश ..मात्र भी दुखकी संभावना न हो।" निदान भगु पुराहित न अपने पुत्रों को भोगोपभोगों के नाना प्रकारके सुख और संयम की कठिनता दिखाई पर पुत्रों ने एक न मानी और साधु बन ने की दृढ प्रतिज्ञा करली । भृगु पुरोहितने अपने पुत्रों की हद प्रतिज्ञा साधु बन ने की देखी तो उसे मोह के कारण सारा संसार अन्धकार मय दिखाई पड़ने लगा और सोचने लगा कि इतनी भारी. धन सम्पति होने परभी संतान सुख प्राप्त नहीं होगा तो यह धन किस काम का होगा और हृदय दुख से जलता रहेगा । इन पुत्रों को सब तरह से समझाया पर ये साधु हुये बिना न For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहेगे । जब येही घर में न रहेंगे तब संसार में गृहस्थाश्रम में रहने से लाभ ही क्या ? इस से तो इन के साथही मुनि वृत्ति ग्रहण करना उत्तम होगा। अतएव उसने भी मुनिवृत्ति ग्रहण करने की ठान ली। नृगु पुरोहित अपनी पतिभक्ता पत्नी के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा:-"प्राणप्रिये ! दोनों पुत्रों के भविश्य में जो साधुओं ने कहाथा और हमें जिस बातका भयथा, जिस भय से हम नगरी छेड़कर इस बन में रहे थे, वही बात श्राज साधुओं के आजाने से होगई । ये अपने दोनों पुत्र साधु बनने को जा रहे हैं, कहो तुम्हारी क्या इच्छा है ? " पुरोहितानी कुछ देरतो च. कितसी रह गई पर यह सोच कर कि भविश्य मे उन पुत्रोका ऐसा ही होनाथा । धीरज धर कर स्वामी से बोली:- स्वामी! पुत्र संसार परित्याग करें तो उन्हें करने दो। यह अपार सम्पति जिस के लिये मनुष्य रात दिन परिश्रम करते हैं और अनेक छल कपट से धन इकट्टा करते हैं उस अतुल धन राशिको क्यो खोवे. श्राो पुत्रों का सोच छोड़ अपन दोनों ही संसार के सुख और ऐश्वर्यका भोग भोगे।" पुरोहित बोला:-'' प्रिये ! नहीं नहीं ! सुख भोगते २ अंतिम अवस्था आगई है फिर भी भोगने की उत्कृष्ट इन्छा तुम्हें हो रही है। देखो तो सही जो अभुक्त भोगी है वे तो संयम ले रहे हैं और हम भुक्तभोगी और भी सांसारिक सुखों के भोगने के लिये संसार में बैठे रहे । क्या हमारी बुद्धि इन बालकों से भी हीन है? कभी नहीं, ऐसा न होगा । मे भी इन बालको के साथ संसार परित्याग कर मुनित्रत लूंगा; यदि तेरी इच्छा हो तो तू भी संसार परित्याग कर । " जब " यशा" ने देखा कि स्वामी रहने के नहीं, पुत्र रहने के नहीं जिन से सारे संसारका सुख था तब में ही अकेली सं. For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) सारमें क्या करूंगी ? इनकी तरह से मैं भी अपनी श्रात्मा का कल्याण क्यों न करूं।" ऐसा पक्का विचार कर चारों ही व्यक्ति नगरी में आकर अपनी अतुल धन राशि को छोड़ साधु बन ने को घर से चल निकले । यह समाचार सारी नगरी में बिजली की भाँति फैल कर राजा तक पहुंचा । राजा ने उस समय के नियमानुसार ' जिस धन का कोई स्वामी न रह जाय वह कोष में मंगा लिया जाय, पुरोहित के सांर धन सम्पतिको राज- कोष में डालने के लिये अनुचरों को श्राज्ञा देदी। वे लोग पुरोहित की सारी धन सम्पति को ला लाकर राज्य कोष में डालने लगे । यह समाचार रानी कमलावती को मालुम हुआ तो उस ने राजा से निवेदन किया: प्राणनाथ ! दान में जो द्रव्यं श्राप दे चुके हो उसे पीछा लौटाना बुद्धिमानों का काम नहीं है, दिये दान को तो छूने का भी विचार न करना चाहिये । राजा बोला:" रानी ! संभलकर बोलो राज्य भंडार मै तो ऐसे ही अन श्राता जाता है, यदि तुम्हारे को पसन्द न हो तो संसार में क्यों बैठी हुई इसी धन से मौज उड़ा रही हो ? रानी बाली - " प्राणनाथ ! मैं इस मौज को मौज नहीं समझती वरन् बन्धन समझती हूं। जैसे सोने के पिंजरे में तोता भी बन्धन रूप दुख अनुभव करता है । इसी प्रकार हे राजन् ने भी इन पौगलिक सुखों के बन्धन में दुख समझती हूँ ! मेरा मन इन सुखों से उपरति हो रहा है । आप श्राज्ञा प्रदान करें तो मैं भी साध्वी बनूंगी और इसकी मुझे उत्कट इच्छा हो रही है सो हे स्वामी, इस विनय को स्वीकार कीजिये और श्रीमहा राज, आपसे भी विनय करती हूं कि आपभी सोचिये क्या 59 २ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साप अमर होकर आये हैं ? श्राप जैसे अनेक राजा इस भ मण्डल पर चक्रवर्ती होकर अन्त इस नश्वर शरीर को छोड़ कर चल बसे! यह पृथ्वी, यह वैभव, यह हकूमत, यह राज भण्डार, यह हाथी-घोडे आदि सब वैभव यहां का यहीं रह गया कोई भी प्यारा बन्धव, स्नेही, मित्र , सेना, शत्रु साथ में न चला! यदि आपने इन सब ठाट पाट, सुख-चैन, वैभव को न छोड़ा तो एक दिन ऐसा आवेगा कि जब ये सब स्वयं ही आप को छोड़ देंगे। तब आप स्वयं ही राज्य सुखों को छोड़ मोक्ष जानेका प्रयत्न क्यों न करें।" इतना सुनते ही राजाको भी वैराग्य हो पाया और वैराग्य अवस्था में श्राकर अपने पुत्र. को राज्य भार सौंप दिया और श्राप स्वयं रानीको वैराग्य की आज्ञा दे कर संयमी बनाई । तदनु राजा और रानी पुरोहित और पुरोहितानी, दोनों बालक ये छःओं ही व्यक्ति संयम धारण कर अनेक जन्म जन्मातर के किये हुए पापों को तपवत से भस्म कर मोक्ष चले गये । इति शम् For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असिमाउसाय नमः मङ्गलाचरणम् मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमः प्रभुः। मङ्गलं स्थूल भद्रायो, जैन धर्मोस्तुमङ्गलम् ॥१॥ -- - मूल-देवा भवित्ताण पूरे भवम्मि, केई चुया एगविमाणवासी। पुरे पुराणे उसुयारनामे, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥ १॥ सकम्मसेसेण पुराकएणं, कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया। निग्विणसंसारभया जहाय, जिणिन्दमग्गंसरणंपवना ॥ २ ॥ छाया-देवा भूत्वा पूर्वस्मिन् भवे,चिच्च्युता एकविमानवासिनः। पुरे पुराण इचुकारनान्नि, ख्याते समृद्ध सुरलोकरम्ये ॥१॥ स्त्रकर्मशेषेण पुरा कृतेन, कुलेषूदग्रेषु ते प्रसूताः। .. निर्वियाः संसारभयाद्धिला, जिनेन्द्रमार्ग शरणं प्रपनाः ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) अन्वयार्थ-(केचित्) कई एक (पूर्वस्मिन्) पहिले (भवे) जन्म में (एकविमानवासिनः) एक विमान में रहने वाले (देवाः) देव (भूत्वा) हो कर 'तदनु वहां से' (च्युताः) पतन को प्राप्त हो (पुरा) पूर्व जन्म में (कृतेन) किये हुए (स्वकर्मशेषेण ) अपने कर्म के अवशिष्ट अंश से (ख्याते) सुप्रसिद्ध (समृद्धे) समृद्धिशाली (सुरलोकरम्ये ) स्वर्ग के समान रमणीय (इतुकारनाम्नि ) इत्कार नामक (पुराणे) प्राचीन ( पुरे) नगर में (ते) वे (उदग्रेषु ) ऊंचे कुलेषु ) कुलों में (प्रसूताः) उत्पन्न हुवे (संसारभयात् ) संसार के भय से (निविणाः) उद्वेग पा कर (हित्वा) 'संसार का' परित्याग कर (जिनेन्द्रमार्ग ) जिनेन्द्र के मार्ग की (शरणं) शरण (प्रपन्नाः ) प्राप्त हुए ॥ १ ॥२॥ भावार्थ-कई एक जीव पहले जन्म में एक ही पद्मगुल्म नाम के विमान में अपनी आयुः पूर्ण कर पूर्व भव के संचित शुभ कर्म के रहे हुए शेष भाग ले सुरलोक के सदृश मनोहर प्रसिद्ध धन धाग्य आदि ऋाद्धे युक्त इतुकार नामक नगर में प्रधान कुल में उत्पन्न हुए। तदनु कुछ समय के बाद सहरु के सद्वोध द्वारा संसार के जन्म मरण प्राधि दुःस्त्रों से भयभीत हो कर जिनेन्द्र भगवान के प्ररूपित मार्ग के शरण को प्राप्त हुए ॥ १ ॥२॥ मूल-पुमत्तमागम्म कुमार दोऽवि, . पुरोहियो तस्स जसा य पत्ती । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विसालकित्ती य तहे सुयारो, रायऽथ देवी कमलावई य ।। ३ ॥ छाया-पुंस्त्वमागम्य कुमारौ द्वापि, पुरोहितस्तस्य यशाश्च पनी । विशालकीर्तिश्च तथेक्षुकार-राजान देवी कमलावती च ।।३।। अन्वयार्थ-(अत्र यहां पर (पुंस्त्वम् ) पौरुष्य पन (भागम्य) प्राप्त हुए (द्वौ) दोनों (अपि) प्रधानता सूचक (कुमारी) कुमार (पुरोहितः) • तीसरा' पुरोहित (च) और 'चौथा (तस्य)उसकी (पत्नी) औरत (यशाः) यशा नाम वाली (तथा) तैसे ही 'पांचवा' (विशालकीर्तिः) विस्तीर्णकीर्ति वाला (इतुकारः) इक्षुकार नामक (राजा) नरंश (च) और 'छट्ठा' (देवी) राणी (कमलावती) कमलावती नाम की हुई ॥३॥ ___ भावार्थ-छः पुरुष यथा शक्ति धर्म क्रिया कर एक ही स्वर्ग के एक ही विमान में छः ही देवता हुए थे। वहां वे अपना २ श्रायुः पूर्ण कर उन छओं में से एक देव यहां इतुकार नाम के नगर में इक्षुकार नामक नरेश हुया । और दुसरा एक देव इसी राजा के. कमलावती राणी हुई। तीसरा एक देव इसी नगर में भृगु नामक राज्य पुरोहित हुश्रा । और चौथा एक देव इसी पुरोहित के यशा नाम वाली औरत हुई । और दो देव राज्य पुरोहित के पुत्र पने श्राकर हुए ॥ ३ मूल-जाईजरामच्चुभयाभिभूया, बहिविहारामिनिविठ्ठचित्ता । For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२२) संसारचकस्स विमोक्खणटा, दहण ते कामगुणे विरत्ता ॥४॥ छाया-जातिजरामृत्युभयाभिभूनौ, बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ । संसारचक्रस्य विमोक्षणार्थ, दृष्ट्वा तो कामगुणेषु विरक्तौ ॥४॥ अन्वयार्थ-(जातिजरामृत्युभयाभिभूतौ) जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु भय से भयभीत होने वाले (बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ) संसार से बहारका स्थान में प्राशक्त चित्तवाले (तो) वे दोनों कुमार ( दृष्ट्वा ) · उन साधुको ' देख कर (संसारचक्रस्य) संसारचक्र को (विमोक्षणार्थ) दूरकरने के लिये (कामंगुणेषु) विषय वासना से (विरक्ती) विरक हुवे ।। ४॥ .. भावार्थ-संसार में जन्म जरामृत्यु आदि भयों से भयभीत होने वाले और संसार से बहार का जो स्थान (मोक्ष) उस स्थान को प्राप्त करने के लिये प्रासक चिस बाल घे दोनो राज्य पुरोहितके पुत्र सहुरु को देख कर संसार के संपूर्ण विषय वासनाओं से विरक्त हुए ॥४॥ मूल-पियपुत्तगा दोनिवि महाणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स । सरितु पोराणिय तत्थ जाइ, तंहा सुचिगणं तव संजमं च ॥५॥ १-पंचमी विमति के स्थान में सप्तमी हुई। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) छाग-प्रियपुत्रको द्वावपि ब्राह्मणस्य, स्वकमेशीलस्य पुरोहितस्य । स्मृत्वा पौराणिकीन्तत्र जाति, तथा सुचीर्ण तपः संयमं च ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ (स्वकर्मशीलस्य) अपने कर्म काण्डों में नि. पुण (ब्राह्मणस्य ) ब्राह्मण (पुरोहितस्य ) पुरोहित के (द्वावपि) दोनों ही (प्रियपुत्रको) प्रिय पुत्र (तत्र) वहाँ, (पौराणिकी) पूर्व (जाति) जन्मको (तथा) तथा प्रकार का (सुचीर्ण ) अङ्गिकार किया हुआ (तपः) तपवत (च) और (संयम) संयमको (स्मृत्वा) स्मरण कर ।। ५॥ भावार्थ-अपने क्रिया काण्ड में निपुण ऐसा जो वह पुरोहित ब्राह्मण उसके उन दोनों पिय पुत्रों ने जाति स्मरण ज्ञान द्वारा विचार किया कि अपन ने अगले जन्म में किस प्रकार का तपव्रत और संयम अङ्गीकार किया था वह सब उनको भाषित होने पर फिरभी वैसा ही करने के लिये उत्तेजित हुए ॥ ५॥ मूल-ते कामभोगेसु असज्जमाणा, माणुस्सएसु जे यावि दिव्वा । मोक्खाभिकखी अभिजायसड्ढा, तायं उवागम्म इमं उदाहु ॥ ६॥ छाया-तौ कामभोगेष्यसंसजतो. मानुष्यकेषु ये चापि दिव्याः। मोक्षाभिकांक्षिणाभिजातश्रद्धौ तातमुपागम्येदमुदाहरताम् ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२४ ) अन्वयार्थ (मानुष्यकेषु) मनुष्य सम्बन्धी (ये चापि) जो और भी (दिव्याः ) देवता सम्बन्धी (कामभोगेषु) काम भोगोंमें (असंसजतौ ) संसर्ग नहीं करते हुए (अभिजातश्रद्धौ) उत्पन्न हुई है तत्व रुची ऐसे (मोक्षाभिकांक्षिणी) मोक्षकी इच्छा करने वाले (तो) वे दोनों पुत्र (तातमुपागम्य) पिता के पास आकर (इदं। इस प्रकार (उदाहरताम) कहते हुए ॥ ६ ॥ भावार्थ-उत्पन्न हुई है तत्व रूची जिनको ऐसे वे दोनों पुत्र मोक्षाभिलाषी मनुष्य सम्बन्धी और देवता सम्बन्धी काम भोगों का संसर्ग नहीं करते हुवे अपने पिता के पास आकर इस प्रकार कहने लगे ॥६॥ मूल-असासयं दडु इमं विहारं, बहुअंतरायं न य दीहमाउं । तम्हा गिहंसि न रइं लभामो, आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ॥ ७ ॥ छाया-प्रशाश्वतं दृष्ट्वेमं विहारं, बहन्तरायं न च दीर्घमायुः। तस्माद्गृहे न रतिं लभावहे, आमंत्रयावहे चरिष्यामो मौनं ॥७॥ __ अन्वयार्थ-(इम) यह (विहारं) मनुष्य भव अशाश्वतं) हमेशा का नहीं है ‘तदपि' (बह्वन्तरायं) बहुत अन्तराए है, (च) और (आयुः) उम्र (दीर्घम् ) लम्बी (न) नहीं है 'ऐसा' (दृष्ट्वा) देख कर (तस्मात्) इस कारण से (गृहे) घर में (रतिं) For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगु चरित्र । चित्र परिचय के लिये, वन्दनेके लिये नहीं है। AMALA दोनों साधु गाव में प्रवेश हो रहे हैं आगे उन्हे भृगु पुरोहित और उसकी स्त्री दोनो आहार बहरा रहे हैं दो बालक गेंद खेल रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) आनन्द को (न) नहीं (लभावहे) प्राप्त कर सके (आमन्त्रयावहे) हम पूछते है आपको (मौनं ) दीक्षा ( चरिष्यामः) अङ्गीकार करेंगे ॥ ७ ॥ I 1 भावार्थ - हे पिता श्री ! यह मनुष्य भव अल्प आयु बाला सदैव रहने का नहीं हैं, नश्वर है । और इस स्वल्प श्रायु में भी भोगोपभोग भोगने के लिये खांसी धासी बुखार निद्रा शोक आदि अनेक प्रकार की बाधाएं श्रा खड़ी होती हैं । ऐसी श्रनित्य अवस्था में उस परम शाश्वत सुखों को छोड़ कर गृहस्थाश्रम के पौगलिक क्षणिक सुखों में हमें श्रानन्द नहीं प्राप्त होता है । श्रत एव हम मुनिवृत्ति ग्रहण करेंगे । आप हमें श्राज्ञा प्रदान करें ॥ ७ ॥ मूल-ग्रह तायगो तत्थ मुणीए तेसिं, तवस्स वाघायकरं वयासी । इमं वयं बेयविओ वयन्ति, जहा न होई असुयाण लोगो ॥ ८ ॥ छाया - अथ तातं कस्तत्र मुन्योस्तयोस्तपसोव्याघातकरमवादीत् । इमां वाचं वेदविदो वदन्ति, यथा न भवत्यसुतानं लोकः ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ - ( अथ) इस के बाद ( तातकः ) पिता ( तत्रः ) तहाँ ( मुन्योः ) ' भाव' मुनि ( तयोः) उन्ह के (तपसः ) तपसा को (व्याघातकरं ) बाधा पहुंचाने को अवादीत् ) कहने लगा ( वेदविदः ) वेद के जानने वाले ( इमां ) यह (वाचं) वचन (बदन्ति ) कहते (यथा) जैसे (असुतानं ) बिना पुत्र ( लोक: ) परलोक (न) नहीं (भवति) होता है ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only * Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) भावार्थ-इस प्रकार दोनों पुत्रों के दीक्षा की श्राशा याचने के बाद इन्हीं के पिता भृगु-पुरोदिन उन्ह दोनों भाव मुनियों के तप, संयम को व्याघात पहुंचाने के लिये इस प्रकार कहने लगा कि हे पुत्रों! इस संसार में वदकं जानने वाले नयन यह कहते हैं कि बिना सन्तान हुए उसकी सदति नहीं होती ॥८॥ मूल-अहिज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते परिठ्ठप्प गिहंसि जाया। मोचाण भोए सह इत्थियाहिं, पारगणगा होह मुणी पसत्था ॥६॥ छापा-अधीत्य वेदान्परिवष्य विमान्पुत्रान् परिष्टाप्य गृहे जाती। मुक्त्वा भोगान् सहस्त्रीभिरारण्यको भवतं मुनी प्रशस्तौ ॥६॥ अन्वयार्थ-(जाती) हे पुत्रो (वेदान् ) वेदों को (अधीत्य) पढ़ कर (विप्रान् ) ब्राह्मणों को (परिवेष्य) भोजन करा कर (स्त्रीभिः स्त्रियों के (सह ) साय (भोगान् ) भोगों को (भुक्त्वा ) भांग कर (गृहे । घा में (पुत्रान् ) पुत्रों को (परिष्टाप्य) स्थापन कर (भारण्यको) वान प्रस्य (मुनी) माधु (भवतम् ) होना (प्रशस्तौ) प्रसंशनीय है ॥ ६ ॥ भावार्य-हे पुत्रों ? हमारा तुम से यह कहना है कि पहले वेद शास्त्र पढो. ब्राह्मणों को खूप खिलाओ पिलाओ, स्त्रियों के साथ भोग भोगो, दो चार पुत्र होने के बाद उन पुत्रों को होशियार कर गृहस्थाश्रम में प्रवर्त कर दे फिर तुम को मुनिति प्रहप करना प्रसंशनीय है ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२७) मूल-सोयरिंगणा पायगुर्णिधणेणं, मोहाणिला पन्जलणाहिएणं । संतत्तभावं परितप्पमाणं, लालप्पमाणं बहुहा बहुं च ॥ १०॥ पुरोहियं तं कमसोऽणुणंतं, निमंतयंतं च सुए धणेणं । जहकम कामगुणेहि चेब, कुमारगा ते पसमिक्ख वकं ॥ ११ ॥ छाया-शोकामिनात्मगुणेन्धनेन, मोहानिलादधिकमज्वलेन । संतप्तभावं परितप्यमानं, लालप्यमानं बहुधा बहु च ॥१०॥ पुरोहितं तं कमशोऽनुनयन्तं, निमंत्रयन्तं च सुतौ धनेन । यथाक्रमं कामगुणैश्चैव,कुमारको तौ मसमीक्ष्य वाक्यं(कचतु)११ अन्वयार्थ-(प्रात्मगुणेन्धमेन) प्रान्मा के गुण रूप इन्धन (मोहानिलात्) माह रूप हवा (अधिकप्रज्वले) 'द्वारा' प्रज्वलित (शोकाग्निना) शोक रूप ममि से (संतप्तभावं) सन्ताप्तभाव हुए है ऐसा (परितप्यमानं) परिशास पाता हुआ (बहुधा) बहुत प्रकार के (बहु) बहुत से (लालप्यमानं) लालच (क्रमश:) क्रम से (सुतौ) पुत्रों को (अनुनयन्तं) जिताता हुआ (यथाक्रम) यथाक्रम (धनेन) धन कर के (च) मौर (कामगुणैः) स्त्रीभाग कर के (एव) निश्चयार्य ( निमन्त्र For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) यन्तं ) निमंत्रण करते हुवे (तं) उस (पुरोहितं ) पुरोहित को (प्रसमीक्ष्य) देखकर (तो) वे दोनों (कुमारको) कुमार ( वाक्य) · उचतुः' कहते हुए ॥ १० ॥ ११ ॥ ___भावार्थ-दोनों पुत्रों को पिताने बहुत समझाया पर वे दोनों पुत्र अपने प्रण से एक पेरभी पीछे न हटे तब शोक रूप अग्नि. प्रात्मा के गुण रूप इन्धन, मोह रूप हवा से प्रज्वलित हुश्रा हृदय जिसका ऐसा वह पुरोहित संताप और परित्राप पाता हुअा औरभी अपने पुत्रों के वैराग्य पथ से पृथक करने के लिये नाना प्रकार के बहत से धन, धान्य, स्त्रीभोग आदि क्रमवार भोगोपभोगों को विनम्र भावोंके साथ निमंत्रण करता हुवा । पिताको अज्ञान से श्राछादित देखकर वे दोनों कुमार यो बोले ॥ १० ॥ ११ ॥ मूल-वेया अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निति तमं तमेणं । जायाय पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेजएयं ।। १२॥ छाया-वेदा आधीता न भवन्ति त्राणं, भुक्ता द्विजा नयंति तमस्तमसा। जाताश्च पुत्रा न भवन्ति त्राणं, को नाम तेऽनुम न्येतेतत् ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ-(वेदाः) वेदों को (अधीताः) पढने से ही वेद' (त्राणं) शरणभूत (न) नहीं (भवन्ति) होते है द्विजाः) 'पथ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) च्युत' ब्राह्मणों को (भुक्ता) जिमाने से (तमसा) अज्ञान कर के (तमः) अधोगति को (नयंति) प्राप्त होते हैं (च) और (पुत्राः ) पुत्र (जाताः) होने से (नाणं) शरण (न) नहीं (भवन्ति ) होते हैं तब (कः) कौन (नाम ) ऐसा (ते) तुम्हार (एतत्) ये 'वाक्य' (अनुमन्येत्) मान सकता है ॥१२॥ .. भावार्थ हे पिता श्री ! केवल वेद शास्त्रों (ज्ञानशा. स्त्रों) को पढने से वेद शरण भूत नहीं होते हैं। क्योंकि केवल पढने मात्र ही से क्या ! वेद पढने के बाद सत्य कर्मों में प्रवर्ती करें । उसी के वेद पढना इस भव परभव में शरण भूत हो सकता है । इसी प्रकार श्रीमद्भागवत के ७ चे. स्कन्ध के ग्यारहवें अध्याय के २१ वे श्लोक और श्री. मद्गीता के अठारवें अध्यायके ४२ वे श्लोक से विमुख अगुओं को धारण करने वाले, ब्रह्म पथ से पतित , व्यभिचारी, अ. सत्यवादी, अनेक असदगुणों का भण्डारी, केवल नाम मात्र के ब्राह्मणों को भोजन खिलाने से परलोक में त्राण (शरण । तो दूर रहे पर अशान कर के अन्धकार के स्थानको प्राप्त होते हैं । और न कोई पुत्र परलोक में त्राण शरण हो सकते हैं। तब कौन ऐसा मूखे है जो भोगीपभोग के लिये प्राप के ये वाक्य माने ॥ १२॥ मूल-खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ।। १३ ।। For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०) छाया-क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखा अनिकामसौख्याः। संसारमोक्षस्य विपक्षीभूता, खानिरनर्थानां तु कामभांगाः ।।१३।। अन्वयार्थ-(कामभोगाः) काम भोग (तु) पद पूणार्थ (क्षणमात्रसौख्याः ) क्षणिक सुख वाले (बहुकालदुःखा) बहुकाल तक दुःख देने वाल हैं (प्रकामदुःखाः) 'भोगों में' उत्कृष्ट दुःख है (अनिकामसौख्याः) किंचिन्मात्र सुख (संसारमोक्षस्य) संसार से निवर्तन होने को (विपक्षीभूताः) ये भोग' वैरी के समान (अनर्थानां) अनर्थों की (खानिः ) खदान है ॥ १३ ॥ भावार्थ-हे पिता श्री ! ये काम भोग क्षण मात्र के सुख देने वाले हैं। फिर उन के परिणाम अन्त में बहुत ही दुखदायी होते है । इन में किसी प्रकार का मुख न समझे, जैसे कहां ती पर्वत के समान दुःख और कहां बिचारा कंकर के समान पोद्गलिक सुख है। हम तोहे पिता ऐसे सुखों पर न रीझेगे । क्योकि वह थोड़ा सा सुख भी सम्पूर्ण मोक्ष के सुखों का वैरी है । और संसार में जितने भी परिभ्रमण करने के कारण हैं वे सभी इसी काम भोग रूप मान ही में से निकलते हैं ॥ १३ ॥ मूल-परिव्ययंते अणियत्तकामे, अहो.य राम्रो परितप्पमाणे । For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३१) अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पोति मच्चु पुरिसे जरं च ।। १४ ।। छाया--परिव्रजननिवृत्तकामोऽहनि च रात्रौ परितप्पमाना। अन्नप्रमत्तो धनमेषयन् , प्रामोति मृत्युं पुरुषों जरां च ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ-(अन्नप्रमत्त) भोजन की प्राप्ति में आशक्त, (धनम् ) धन को, (एषयन् ) हूंढने के लिये, (परिव्रजन् ) परिभ्रमण करता हुआ, (अहनि दिन, (च और । रात्रौ ) रात्रि भर, (परितप्यमानः) चिन्ता ग्रसित, ( पुरुषः) मनुष्य, (अ. निवृत्तकामः) अतृप्त इच्छा वाला, जरां) अवस्या को प्राप्त हो कर' (च) और, (मृत्यु । मृत्यु को, (प्राप्नोति ) प्राप्त हो नाता है ॥ १४ ॥ भावार्थ-हे पिता श्री ! जो भोगों से दूर नहीं हुआ है वह अतृप्त इच्छावाला मनुष्य विषय वासना और खान पान धन प्रादि इकट्रे करने के लिये रात दिन चिन्ता में पड़ा हुधा इधर उधर भटकना फिरता है यो भटकते २ वृद्धाव. स्थाको प्राप्त होकर आखिर मृत्यु को प्राप्त होजाता है ॥ १४ ॥ मूल-इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किञ्च इमं अकिचं । तं एवमेयं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ॥ १५॥ बाया-इदश्च मेऽम्तीदच नास्तीदञ्च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२) तमेवमेव लालप्यानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः ॥ १५ ॥ (इदम् ) यह 'स्वर्ण (मे) मेरे (अस्ति) है (च) और (इदम्) यह 'हीरे पन्ने' (न) नहीं (अस्ति ) है (च) और (इदम्) यह · मकान ' (मे) मेरेको ( कृत्यम् । करने योग्य ( च ) और (इदम् ) यह ' व्यापार ' (अकृत्यम् ) नहीं करने योग्य है (एवमेव ) इस प्रकार (लालप्यमानं) 'दिल' ललचाता है (हराः) रात दिन रूप समयका' चौर (तं) उस पुरुषको (हरन्ति) 'जन्म जन्मान्तरको प्राप्त करता है (इति) संपूणार्थ (प्रमादः ) 'तब आलस्य (कथं) क्यों किया जावे' ॥१५॥ हे पिता श्री ! इस संसार में मनुष्य मात्र इस ध्यान में बैठे हुए हैं कि इतना तो मेरे पास है, इतने धनकी और श्रावश्यकता है । मेरे अमुक व्यापारतो करने योग्य है । और अमुक व्यापार नहीं करने योग्य है । इसी फिक्र में रात दिन लगा रहता है , पर यह नहीं जानता है कि रात दिन समय रूप चौर जाम जन्मान्तरों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है । ऐसी अवस्था में हमें धर्म कार्य में प्रमाद करना ठीक नहीं है ॥ १५॥ मुल-धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं क़ए तप्पइ जस्स लोगो, तं सवसाहीणमिहेद तुभं ।। १६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-धनं प्रभूतं मह स्त्रीभिः स्वजनास्तथा कामगुणा:प्रकामा:। तपःकृते तप्यते यस्य लोकस्तत्मस्वाधीनमिहैव युषयोः ।।१६।। अन्वयार्थ-(प्रभूतं बहुत (धन) द्रव्य (सह स्त्रीभिः ) साथ स्त्री (स्वजनाः) परिवार (तथा) तैसे ही ( प्रकामाः) खूब (कामगुणाः) काम भोग (तपः) कष्ट (कृते) इत्यादिको प्राप्त करने के निमिन (यस्य)जिसके (लोकः) मनुष्य (तप्यते) परिश्रम उठाते हैं (तत्) वे (सर्वम्)मब (युवयोः) तुमको ( इहैव ) यहाँ पर ही ( स्वाधीनम् । स्वाधीन है ।। १६ ।। भावार्थ-हे पुत्रों ! संसार में तो धन , स्त्री , परिवार, भोगोपभोग आदिको प्राप्त करने के लिये मनुष्य अनेक प्रकारका कष्ट, और भाति २ का परिश्रम उठाते हैं पर तुम्हे तो बिना ही परिश्रम किये हुए यहाँ सब सुख प्राप्त हो रहे है। फिर तुम इन सुखों को भागने के लिये शिर क्यों हिला रहे हो ॥ १६ ॥ मूल-धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहिं चेव । समणा भविस्सामु गुणोधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ॥ १७॥ छाया-धनेन किं धर्मधुराधिकार, स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव । श्रमणौ भविष्यावोगुणौधधारिणी, बहिर्विहारावभिगम्य भिदाम् ।। १७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) अन्वयार्थ-(धर्मधुराधिकारे) धर्म है अग्रसर जिसके ऐसे अधिकार में उसके ( धनेन) धन कर के (किं) क्या (वा) अथवा (स्वजनेन) परिवार कर के 'क्या । (च) और (कामगुणैः) कामभोगों कर के ( एव) ही ' क्या ' (गुणौ. घधारिणौ) गुण समूहको धारण करने वाले (श्रमणौ ) साधु (भविष्याव:) होंगे (भिक्षाम् ) भिक्षाको ( अभिगम्य ) 'निर्दोष , जानकर (बहिर्विहारौ) 'ग्राम से , बहार गमन करेंगें ।। १७ ।। हे पिता श्री ! जिप के हृदय में धर्म प्रविष्ट कर गया है, उसे न धन, न स्वजन , न काम भोगों की ही श्रावश्य कता है और न वह उनकी प्राप्ति के लिये इच्छा करता है। इसी प्रकार हमको भी जो श्राप कह रहे हैं उन में से किसी भी बातकी आवश्यकता नहीं हैं। हाँ, जिसे चाह रहे हैं उसी लिये शान्त, दान्त गुणों को धारण कर अप्रतिबद्ध पक्षिक जैसे भूमण्डल में विचरेंगे । और निर्दोष श्राहार पानी को जान कर उसे भिक्षा रूप में ग्रहण करते हुये संयम का निर्वाह करेंगे ॥ १७॥ मूल-जहा य अरगी अरणीअसंतो, खीरे घयं तेल्लमहा तिलेसु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता, समुच्छई नासइ नावचिट्टे ॥ १८ ॥ छाया-यथा चानिः अरणितोऽसन् धीरे घृतं तैलमथ तिलेषु । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५ ) एवमेत्र जातौ शरीरे सत्ता सम्मूर्च्छति नश्यति नावतिष्टते ॥ १८ ॥ अन्वयार्थ - (जाती) हे पुत्रों ! ( यथा ) जैसे ( अग्निः ) आग ( अरणितः ) अग्निकाष्टमथन से ( असन ) नहीं होने पर भी ( सम्मूर्च्छति ) उत्पन्न होती हैं ( क्षीरे) दुग्ध में ( घृतं ) घी ( अथ ) शब्द की भिन्नता ( तिलेषु ) तिलों में ( तैलं ) तेल ' यों ही उत्पन्न होजाते हैं ' ( एवमेव ) ऐसे ही ( शरीरे ) शरीर में (सत्ता) जीव ' उत्पन्न हो जाते हैं ' ( नश्यति ) शरीर ' नाश होता है ' उस समय जीव भी ' ( न ) नहीं (अवतिष्टते) ठहरता है || १८ || 4 भावार्थ- हे पुत्रों ! जैसे अणि के काष्ट मथन से अग्नि, दुध में घी, तिलों में तेल यों ही उत्पन्न हो जाते हैं । वास्तविक रूप से उन में अग्नि, दुग्ध, घी, नहीं हैं । ऐसे ही इस शरीर में भी यह जीव जो तुम कहते हो वह यों ही पांच तथ्यों का संयोग मिलने पर उत्पन्न हो जाता है । जब पाँच तत्व ( शरीर ) नष्ट होते हैं तब जीव ( आत्मा ) भी समूल नष्ट हो जाता है न स्वर्ग है, न नर्क है, न मोक्ष, केवल यह तो इन्द्र जाल है । किस के लिये तुम व्यर्थ हो साधु बनकर इस शरीरको कष्ट पहुँचाने का सहास कर रहे हो ॥ १८ ॥ मूल-नो इंद्रियगेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) अझत्थहेडं निययऽस्स बंधो, संसारहेडं च वयंति बंधं ॥ १६ ॥ छाया-नेन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावादमूर्तभावादपि च भवति नित्य । अध्यात्महेतुं नियतोऽस्य बन्धः,संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ।।१६॥ अन्वयार्थ-( अमूर्तभावात् ) ' आत्मा की' अरूप भाव होने से ( इन्द्रियग्राह्यः ) इन्द्रियों द्वारा ग्रहण ( न ) नहीं हो सकता ( च ) और ( अपि) भी (अमूर्त भावात् ) अरूप होने से ( नित्यः ) हमेशाका (भवति) होता है (अध्यात्महेतुं ) आन्तरिक दुर्गुणों का हेतु ( अस्य ) उसके (नियतः) निश्चय ( बन्धः ) बन्धन है (च) और ( संसारहेतुं ) संसार में परिभ्रमण रूप ' हेतु ( बन्धम् ) बन्धन ( वदन्ति ) ' तत्त्वज्ञ' कहते हैं ॥ १६ ॥ भावार्थ-हे पिता श्री ! शरीर नाश होने पर प्रात्मा भी नाश हो जाती है यह बात श्रापकी तत्वज्ञ तो नहीं मान सकते हैं । क्या यह अरूपी आत्मा इन्द्रियों द्वारा पकड़ी जाती है ! कभी भी नहीं, अमूर्तिमान प्रारमा कभी नाश नहीं होती । यदि तुम कहोगे कि इस रूपी शरीरने अरूपी श्रात्मा का बन्धन कैसे कर रखा है। उत्तर-जैसे आकाश अरूपी है पर घट के आश्रित रहे हुवे आकाश का बन्धन हो ही जाता है उसे घटाकाश कहेंगे । परन्तु घटका नाश होने पर श्राकाशका नाश कभी नहीं होता है । इसी तरह For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से शरीर का नाश होने पर प्रात्मा का नाश नहीं होता है वह तो नित्य, अजर, अमर है । अान्तरिक दुर्गुणों ने आत्मा को बन्धन में कर रखी है घट अाकाशवत् । और ये ही दुर्गुण आत्मा के लिये संसार का हेतु बन रहे हैं । जब ये दुर्गुण प्रात्मा से दूर होजायगें तव वह श्रात्मा परम सुख में प्राप्त होजायगी । अत एव स्वर्ग है. नर्क है, मोक्ष है, सब कुछ है जो जिसकी इच्छा होगा वह प्राप्त करगा ॥ १६ ॥ मूल-जहा वयं धम्ममजाणमाणा, पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। उरुन्भमाणा परिरक्खियंता, तं नेव भुज्जोऽवि समायरामो ॥ २० ॥ छाया-यथा वयं धर्ममजानानाः पापं पुरा कर्म अकाम मोहात। अवरुध्यमानाः परिरक्षमाणाः, तत्रैव भूयोऽपि समाचरामः॥२०॥ अन्वयार्थ ( यथा ) जैसे ( धर्मम् ) धर्मको (अजानानाः ) नहीं जानते हुए ( वयं ) हम ( पुरा) पहिले ( पापं ) पाप ( कर्म) क्रिया ( मोहात् ) मोहसे ( अकाम) किया (परिरक्षमाणाः ) चौतरफ से रक्षा के साय ( अवरुध्यमानाः ) रोके हुवे हम (तत्) वह पाप ( भूयोऽपि ) फिरभी (नैव ) नहीं (समाचरामः) करेंगे ॥२०॥ है पिता श्री ! हम धर्म नहीं जानते थे तब पहिले अक्षात अवस्था में मोहके वश अनेक पाप किये थे । और For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) आपने भी कई प्रकार का झूठा ढकोसला दिखाकर अभी तक संसार में रक्षा के साथ फुसला रखे थे पर अब हम उन दुष्कृतों को पुनरपि जान बुझ कर नहीं करेंगे । जो श्राप हमे समझा रहे हैं यह श्रापका स्वार्थ है ॥ २० ॥ मूल - अभायंमि लोयंम्मि, सव्वउ परिवारिए । अमोहाहिं पडतीहिं, गिहंसिन रहं लभे ॥ २१ ॥ छाया - अभ्याहते लोके, सर्वासु परिवारिते 6 अमोघाभिः पतीभिः गृहे न रनिं लभावहे ||२१|| अन्वयार्थ - ( लोके) लोक ( अभ्याहते ) पीड़ित ( सर्वासु ) सर्व दिशा ' ( परिवारिते ) बिंटा हुआ ( अमोघाभिः ) अविश्रामधारा ( पतंतीभिः ) गिरती ( गृहे ) घर में ( रतिं ) आनन्द ( न ) नहीं ( लभाव ) प्राप्त होता है ।। २१ ।। भावार्थ - हे पिता ! इस संसार में प्राणिमात्र पीड़ित और सर्व दिशाओं में परिवेष्टित हो रहे हैं । सदैव श्रमोघ धारा पड़ रही है । इस लिये हम ऐसे संसार में श्रानन्द कैसे पा सकते हैं ॥२१॥ मूल- केण अभाओ लोओ, केण वा परिवारियो । का वा अमोहा वुत्ता, जाया चिंतावरो हुमि ||२२|| छाया - केनाभ्याहतोलोकः केन वा परिवारितः । का वामोघोक्ता, जातौ चिन्तापरो भवामि ||२२|| अन्वयार्थ - (जाती) हे पुत्रों ! ( केन ) किस तरह For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) (लोकः)जन (अभ्याहतः) पीड़ित (वा) अथवा (केन) किस तरह ( परिवारितः ) परिवेष्टित है ( वा ) अथवा (का) कौनसी (अमोघा) अविश्राम धारा ( उक्ता) कही (चिन्तापरः) चिन्ता ग्रसित (भवामि) होता हूं ॥२२।। भावार्थ-हे पुत्रों! किस प्रकार इस संसार में प्राणिमात्र पीड़ित और वेष्टित हो रहे हैं। और कौनसी अमोघ धारा पड़ रही है । तुमारी बाते सुन कर चिन्ताग्रसित हो रहा हूं। इस का स्पष्टीकरण किये बिना मेरे चित्त को शान्ति नहीं होगा ॥२२॥ मूल-मच्चुणाऽभाहनो लोगो, जराए परिवारिश्रो । ___ अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय बियाणह ॥२३॥ छाया-मृत्युनाभ्याहतो लोको, जरया परिवारितः । अमोघा रजनी उक्ता, एवं तात विजानीयात् ॥२३॥ अन्वयार्थ--(तात) हे पिता! (लोकः) प्राणी (मृत्युना) मृत्यु से (अभ्याहतः) पीड़ित और (जरया) वृद्धावस्था कर के (परिवारितः) घिरे हुए हैं । (रजनी) रात 'उपलक्षण से दिन रूप' ( अमोहा ) अविरल धारा ' पड़ रही है ऐसा तत्वज्ञों ने' (उक्ता) कहा है ( एवं) इस प्रकार (विजानीयात् ) समझो ।। २३ ॥ भावार्थ-हे पिता! इस संसार में प्राणिमात्र मृत्यु के दुःख से पीड़ित और वृद्धा अवस्था कर के घिरे हुए हैं सदैव रात दिन समय रूप विश्राम रहित धारा पड़ रही है इस प्रकार आप अपने हृदय में प्रश्नों का उत्तर समझ लीजियेगा ॥२३॥ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूल-जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइप्रो॥२४॥ छाया-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । अधर्म कुर्वतोस्तस्या, यान्ति रात्रयः ॥ २४॥ अन्वयार्थ-(या या) जो जो ( रजनी ) रात्रि (ब्रजति) जाती है (सा) वह ( न ) नहीं (प्रतिनिवर्तते ) पीछी लौट कर नहीं आती है ( अधर्म) पाप को (कुर्वतस्तस्य) करने वाले की (हि ) निश्चय (रात्रयः ) रात्रि (अफला) निष्फल (यान्ति ) जा रही है ।। २४ ।। हे पिता श्री ! जो जो रात्रि और दिन जा रहे हैं। वे पीछे लौट कर कभी नहीं आने के हैं। ऐसा अपूर्व समय पाकर मनुष्य पाप कर रहे हैं उन के लिये वह समय निष्फलसा जा रहा है ॥ २४ ॥ मूल-जा जा वचइ रयणी, न सा पडिनियत्तई । धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइनो॥२॥ भाया-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तने । धर्मञ्च कुर्वतस्तस्य सफला यान्ति रात्रयः ॥२५॥ (या या ) जो जो (रजनी) रात्री (व्रजति ) जाती है ( सा ) वह ( न ) नहीं (प्रतिनिवर्तते) पीछी लौट कर आती है 'ऐसा समझ कर' ( धर्म ) धर्मको (च) पद पूर्णार्थ (कुर्वतस्तस्य) करने वाले ही ( रात्रयः) रात्रि ( सफला) सफल (यान्ति ) जा रही है ॥ २५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगु चरित्र । चित्र परिचय के लिये, वंदने के लिये नहीं है। दोनों लड़के साधुओं को देखकर भयभीत होते हुएँ गाँव से जंगलकी और भागे जा रहे हैं। आगे वें दोनों वट वृक्ष पर चढ कर पत्ते की आड़ में छिप रहे हैं। मुनि आहार पानी करने को बैठे त्यों ही दोनों लड़के वट से उतर कर नमस्कार कर रहे हैं। For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४१ ) भावार्थ हे पिता श्री ! रात दिन रूप जो अपूर्व समय जा रहा है, वह लौट कर कभी भी पीछा आनेका नहीं है। ऐसा समझ कर ज्ञानी जन धार्मिक काय्यौमें समय बिता रहे है उन का जन्म व समय सार्थक हैं । अत एव पेसा अपूर्व समय जान कर अब हम हमारा समय निष्फल नहीं जाने देंगे. आप हमे धर्म करते हुवे न रोके || २५ | मुल- एमओ संवसिता पं. दुहत्र सम्मतसंजुया । पच्छा जाया गमिस्सामो, भिक्खमाणा कुले कुले ॥ २३ ॥ छाया - एकतः समुष्य द्वये सम्यक्त्वसंयुताः । " पश्चाज्जातौ गमिष्यामो भिक्षमाणाः कुले कुले ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ - (जाती) हे पुत्रों ! ( द्वये ) तुम दोनों हम दोनों (एकत: ) एक जगह ( समुष्यः ) निवास कर ( सम्यक्त्वसंयुताः ) सम्यक्त्व सहित होवे पश्चात् ) फिर (कुले कुले) घर घर में ( भिक्षमाणाः ) भिक्षा करते हुए ( गमिष्यामः ) पर्यटन करेंगे || २६ ।। 1 भावार्थ हे पुत्रों ! तुम दोनों भ्राताओं और हम दोनों तुम्हारे मात पिताओं एवं चारों ही अभी हाल एक ही स्थान में सम्यक्त्व सहित गृहस्थावास में निवास कर यथा शक्ति अपन धर्मोपार्जन करें । फिर वृद्धावस्था आने पर मुनिवति ग्रहण कर उच्च कुलोंमें निर्दोष आहार पानी की भिक्षा करते हुए देशाटन करेंगे | २६ ॥ मूल- जस्सऽत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ||२७|| For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) छाया-यस्यास्ति मृत्युना सख्यं, यस्य चास्ति पलायनम् । यो जानीते न मरिष्यामि, स एव (खलु) कांक्षते श्वः स्यात् ॥२७॥ अन्वयार्थ-( यस्य) जिसके ( मृत्युना) मृत्यु के साथ ( सख्यम् ) मित्रता (अस्ति) है (च) और ( यस्य ) जिसके ‘मृत्युसे • ( पलायनं ) भागने का साहस (अस्ति ) है ( यो ) जो ( जानाति ) जानता है कि मैं' (न ) नहीं ( मरिष्यामि ) मरूंगा ( स ) वह ( एव ) ही ( श्वः ) आगामी दिन 'जीने की' (स्यात् ) कदाचित् ( कांक्षते ) इच्छा करता है ।। २७ ॥ _ भावार्थ-हे पिता श्री ! आप कहते हैं कि वृद्धावस्था होने पर दीक्षा लेंगे इसका निश्चय किस को है। वृद्धाव. स्था न होने पहिले ही मृत्यु प्राप्त हो जाय तो इसकी कौन जान सकता है हाँ जिसको इस प्रकार का ज्ञान है कि मैं अमुक दिन ही मरूँगा और दिन नहीं । अथवा जिसके यमराज के साथ मित्रता हो । यद्वा यमराज से बच कर भगजाने का सहास हो और जो जानता हो कि मैं मरूँगा ही नहीं वही शूर वीर मनुष्य धर्म करने में भले ही परहेज करता होगा । हमारी न तो यमराज के साथ मित्रता है और न हमारे में उस से भगजाने की वीरता है । हम नहीं मरेंगे ऐसा हमे विश्वास भी नहीं तब आप के वचन कैसे मानेगे ॥ २७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४३) मूल-अजेव धम्म पडिवज्जयामो, जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। अणागयं नेव य अस्थि किंची, सद्धाखमं णो विणइत्तु रागं ॥ २८ ॥ छाया-अद्यैव धर्म प्रतिपद्यामहे, यं प्रपन्ना न पुनर्भविष्यामः । अनागतं नैव चास्ति किश्चिन्, श्रद्धाक्षमं नो विनीय रागम् ।।२८|| अन्वयार्थ-( किंचित् ) किंचिन्मात्र ' भी विषयादि सुख ऐसे' (नैव ) नहीं (अस्ति ) है कि मुझे , (अना गतम् ) गये काल में प्राप्त नहीं हुए हो अतः ( रागं ) रागको (विनीय ) दूरकर ( अद्यैव ) आजही (नो) हम (श्रद्धाक्षम ) श्रद्धापूर्वक ( धम्म ) धर्म को (प्र. तिपद्यामहे ) अङ्गीकार करेंगे (यं) जिस (प्रपन्नाः) आश्रित ( न ) नहीं ( पुनः ) फिर ( भविष्यामः) जन्मान्तरों में , होंगे ॥२८॥ भावार्थ-हे पिता! इस संसार में विषयादि सुख ऐसा कोई भी नहीं है जो कि हमे गये काल में नहीं मिला हो। अत एव राग भाव को दूर कर आज ही हम श्रद्धापूर्वक धर्म अ. श्रीकार करेंगे । जिस के धारण करने से संसार में हमारा फिर से जन्म नहीं होगा ॥२८॥ For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४४ ) इस प्रकार पिता पुत्र के परस्पर वार्तालाप होने पर पिताने जान लिया कि ये अब संसार में रहने के नहीं हैं। जितने भी मैं ने इनको रोकने के प्रयत्न किये वे सब योंही गये । जब ये दोनों पुत्र संसार परित्याग कर रहे हैं तो मेरा संसार में रहना अयोग्य है। ऐसा विचार कर भृगु पुरोहित अपनी प्रियपत्नि से यो कहने लगा ॥ मूल-पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, वासिहि भिक्खायरियाइ कालो। सहाहि रुक्खो लहई समाहिं, छिन्नाहिं साहाहि तमेव खाणुं ॥ २६ ॥ छाया- प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासो, वाशिष्टि भिक्षाचर्यायाः कालः । शाखाभिर्वृदो लभते समाधिच्छिन्नाभिः शाखाभिः स एव स्थाणुः ।। २६ ।।। अन्वयार्थ-( वाशिष्टि ) ह वशिष्ट गोतवाली ( प्रही. णपुत्रस्य ) विना पुत्र वालेको ( खलु ) निश्चय । वासः ) 'संसार में ' निवास करना 'योग्य' (न) नहीं ( अस्ति ) है । उसका तो । (भिक्षाचर्यायाः) भिक्षावृत्ति का (कालः ) समय है जैसे' (वृक्षः) पेड़ ( शाखाभिः ) शाखाओं कर के (समाधि ) आनन्द को (लभते ) प्राप्त होता है (शाखाभिः) शाखाओं कर के For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) (छिन्नाभिः ) रहित ( स एव ) वही वृक्ष ( स्थाणुः ) स्तम्भ ' के समान है , ॥२६॥ भावार्थ - हे वशिष्ट गोत्र में उत्पन्न होने वाली प्राणवल्लभा ! दोनों पुत्रों को मैंने बहुत समझाया पर वे मेरे कथन को नहीं मानते हुए संसार का परित्याग कर रहे हैं। इस लिये बिना पुत्र मेरा भी संसार में रहना योग्य नहीं है । क्योंकि अभोगी दोनों पुत्र तो दीक्षा ले रहे हैं । और मैं फिर भी विषयों की लालसा में बैठा रहूँ यह कभी होने का नहीं, मेरा भी भिक्षावृत्ति करने का समय है । जैसे वृद्ध शाखाओं से आनन्द को प्राप्त होता है । और वही वृक्ष शाखा करके रहित सुशोभित नहीं होता हुआ थंभे के समान दिखाई देता है || २६ ॥ मूल- पंखाविणो व जहेव पक्खी, भिचाविणो व रणे नरिन्दो | विवन्नसारो वणिउब्व पोए, पहीणपुत्तोमि तहा अपि ॥ ३० ॥ छाया - पक्षविहीनो वा यथैव पक्षी, भृत्यविधीनो वा रणे नरेन्द्रः । विपन्नसारावणिग वा पोत, ग्रहणपुत्रोऽस्मि तथाऽहमपि ||३०|| अन्वयार्थ - (यथैव ) जैसे ( पक्षविहीनः ) पर विना (पक्षी) पक्षी जानवर ( वा ) अथवा ( रणे) संग्राम में For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४६) (भृत्यविहीनः ) नोकर बिना (नरेन्द्रः ) राजा ( वा ) अथवा ( पोते ) जहाज में (विपन्नसारः) द्रव्य बिना (वणिग्) व्यापारी 'असमर्थ' है (वा) अथवा (तथा) तैसे ही (महीणपुत्रः ) पुत्र बिना (अहमपि ) मैं भी ( अस्मि ) हूं ॥ ३०॥ भावार्थ-हे पुत्र जननि ! जैसे इस संसार में पर बिना पक्षी उड़ने को अशक्त है। संग्राम में सेना बिना बैरी को जीतने में राजा असमर्थ है। और जहाज में द्रव्य रहित व्यापारी वर्ग अस. मर्थ है। ऐसे ही बिना पुत्र संसार में रहने के लिये मैं भी असमर्थ हूं ॥ ३०॥ मूल-सुसंभिया कामगुणा इमे ते, सपिडिया अग्गरसा पभूया । भुंजामु ता कामगुणे पगाम, पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ॥ ३१ ।। छाया-सुसंभृताः कामगुणा इमे ते, संपिण्डिता अग्ररसाः प्रभूताः । भुंजावस्तस्मात्कामगुणं प्रकामं, पश्वामामिष्यावः प्रधानमार्गम् ॥३१॥ अन्वयार्थ -(इमे) ये (संपिण्डिताः ) इकट्ठे किये हुए (सुसंभृताः ) भले प्रकार के (अग्ररसाः) प्रधान रसवाले For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४७ ) ( प्रभूताः ) बहुत से (ते) तुम्हारे ( कामगुणाः) कामभीगों की ' सामग्री ' हैं ( तस्मात् ) इस लिये ( प्रकामं ) बहुत ( कामगुणं ) काम भोगों को ( भुंजावः ) भोगे ( पश्चात् ) फिर ( प्रधानमार्गम् ) दीक्षा मार्ग को ( गमिष्यावः ) जावेंगे ॥ ३१ ॥ भावार्थ- हे प्राणपते ! दोनों पुत्र संसार त्याग रहे हैं तो त्यागने दो, श्राप ने बहुत समझाया पर वे नहीं मानते हैं तो उनकी इच्छा, जिसका अब आप क्या करें। दुनिया में कहते भी हैं कि 'जब दाखे पकन लगी. तो काग कण्ठ हुआ रोग ' । खैर जाने दो । हे नाथ ! आप के तो यह प्रचूर काम भोग सुसज्जित ऋतु अनु. कूल मनोहर इकट्ठे हो रहे हैं । भोगोपभोग भोगने के लिये एक भी ऐसा साधन न रहा है, जो कि श्राप के पास न हो । अवस्था भी अभी हाल है अत एव श्रभी तो सांसारिक सुखों का अपन दोनों अनुभव करें । फिर वृद्धावस्था होने पर संयम मार्ग ग्रहण कर लेंगे ॥ ३१ ॥ 1 मूल-भूत्ता रसा भोई ! जहाइ णे वत्र, न जीवियट्ठा पजहामि भोए । लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं, संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं ॥ ३२ ॥ छाया - भुक्का रसा भोगिनि जहाति नोवयोन, जीवितार्थ प्रजहामि भोगान् । For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाभमलाभञ्च सुखञ्च दुःखं, संत्यक्ष्यमाणश्वरिष्यामि मौनम् ॥ ३२ ॥ अन्वयार्थ (भोगिनि) ह भोगेन्छुका (रसाः) भोगों को (भुक्ताः) भोग लिये 'इन को नहीं छोड़ेंगे तो' (वयः) अवस्था (नः) मुझ को (जहाति) त्याग जायगा (जीवि. तार्थ ) - स्वर्ग में विशेष' जिनके लिये ( भोगान् ) भोगों को (न) नहीं (प्रजहाभि) त्यागता हूं ( लाभं) प्राप्ति (च) और (अलाभम्) अमाप्ति (च) और (सुखम्) सुख (दुःखम् ) दुखको ( संत्यक्ष्यमाणः) समभाव से देखता हुआ (मौनम् ) साधुवृत्तिको (चरिष्याभि प्राप्त करूंगा ॥३२॥ ___ भावार्थ-हे भांगेच्छुका प्राणप्रिये ! संसार के पौगलिक सुखों का अनुभव अच्छी तरह से मैं ने कर लिया है । यदि मैं इन भोगों को नहीं छोडूंगा नो योवन अवस्था मुझ कोपरित्याग कर जायगा। इस लिये पहले ही से भोगों का परित्याग करना श्रेष्ठ है । दांत गिरने पर इंतु चूसने का त्याग करना अज्ञानता है । और ऐसा भी मत समझना कि उपलब्ध भोगोपभोग से अधिक भोगों की प्राप्ति के लिये संसार छोड़ रहा हूं मैं तो केवल अात्मिक सुखों के लिये ही संसार परित्याग कर रहा हूँ। मुझे स्वर्गादि की प्राप्ति अप्राप्ति पौगलिक सुख दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है । सम भाव से देख. ता हुआ साधुवृत्ति प्राप्त करूंगा॥ ३२ ॥ मूल-मा हू तुमं सोयरियाण संभरे, For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६ ) जुगणो व हंसो पडिसोयगामी । भुंजाहि भोगाई मए समाणं; दुक्खं खु भिक्खाययिरा विहारो ॥३३॥ छाया-मा खलु त्वं सौदर्याणामस्मार्क, जीर्ण इव हंसः प्रतिस्त्रोतोगामी । भुंक्च भोगान् मया समं, दुःखं खलु भिक्षाचर्या विहारो॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ-(प्रतिस्रोतोगामी) प्रतिकूल स्रोतको जानेवाला (जीर्णः ) पुराने ( हंस ) हंस ( एव ) जैसे (त्वम् ) तुम ( सौदर्याणाम् ) एक उदरसे उत्पन्न होने वाले भ्राताओं का (मा) कही ( खलु ) निश्चय ( अस्मार्षी ) स्मरण करोगे ' इस लिये ( मया) मेरे (समं) साथ ( भोगान् ) भोगों को ( भुंक्ष्व ) भागो ( भिक्षाचर्याः ) भिक्षा वृत्तिका (विहारः ) गमन ( दुःखम् ) दुःखमयी ( खलु ) निश्चय है ॥ ३३ ॥ भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! दीक्षा लेने के बाद कुटुम्बियों के भोगों की तरफ तुमारा कही ध्यान तो आकर्षित न होजाय ! जैसे नदी के किनारे पर हँसों के टोलों में से एक वृद्ध हँस अपनी सहचारिणी व कुटुम्बियों की बात पर तनिक भी ध्यान For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं देकर पहले किनारे होने के लिये नदी के प्रतिकूल प्रवाह में पड़गया । जब मध्यभाग में उसे कष्ट पहुँचा तब उसने अपनी सहचारिणी व कुटुम्बियों को याद किये कि मेरी सहचारिणी ने मुझे बहुत रोका था पर मैं ने नहीं माना । ऐसे ही हे पतिराज तुम भी दीक्षा रूप प्रवाह मे याद करते हुये फिर पश्चाताप करोगे कि अरे मेरी स्त्री ने मुझे संयम लेते बहुत रोका था । परन्तु मैंने उसका कथन नहीं माना । ऐसी अवस्था में वहाँ श्राप न धर्मके रहोगे, न कर्म के। साधुवृत्ति सहल नहीं है महान कठिन है । इस से तो यह अच्छा है कि संसार में रहकर सुख भोगो । इस के सिवाय और क्या है ॥ ३३ ॥ मूल-जहा य भोई तणुयं भुयंगो, निम्मोयर्णि हिच पलेइ मुत्तो। एमेए जाया पयहंति भोए, सेऽहं कहं नाणुरामिस्समेको ।। ३४ ॥ छाया-यथा च भोगिनि ! तनुजां भुजंगमो। निर्मोचनी हित्वा पति मुक्तः । एवमेतौ जातौ प्रजहीतो भोगान् | तेऽहं कथं नानुगमिष्याम्येकः ।। ३४ ।। अन्वयार्थ-(भोगिनि) हे भोगेच्छका !(च) और (यथा ) जैसे ( भुजंगमः ) सर्प (तनुजाम् ) शरीर से उत्पन्न होनेवाली (निर्मोचनी ) कंचुकी को (हित्वा) For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छोड़कर (मुक्तः ) मुक्त होने पर ( पर्येति) भागजाता हैं ( एवम् ) इस प्रकार (एतौ ) ये (ते ) तुम्हारे ( जातो) पुत्र (भोगान् ) भोगों को (प्रजहीतः) त्यागन कर दिये हैं (एकः ) एकेला (अहं ) मैं ( कथं) कैसे (न) नहीं ( अनुगमिष्यामि ) साथ जाऊँगा ।। ३४ ॥ __ भावार्थ- हे भोगेच्छुका प्रिय पत्नि ! जैसे सर्प, तनसे उ. त्पत्र होनेवाली कंचुकाको छोड़कर भाग जाता है । पुनः उसी कंचुकाको लेना तो दूर रहा पर उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता है। ऐसे ही तेरे दोनों पुत्र शरीर से उत्पन्न होने वाले भोगोपभोगों के सुखों का परित्याग कर साधु बनने को जा रहे है । तो भी मैं एकेला उनके साथ साधुवृत्ति ग्रहण करने को नहीं जाऊँगा क्या ? ॥ ३४॥ मूल-छिदितु जालं अबलं व रोहिया, मच्छा जहा कामगुणे पहाय । धोरेयसीला तवसा उदारा, धीराहु भिक्खायरियं चरन्ति ॥ ३५ ॥ छाया-छित्वा जालमबलमिव रोहिता, मत्स्या यथा कामगुणान् प्रहाय । धौरेयशीला तपमा उदारा, धीरा यस्माद भिक्षाचयाँ चरन्ति ॥३५ ।। For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५२ ) अन्वयार्थ-(यथा ) जैसे (रोहिताः ) रोहित जा. ति का ( मत्स्या) मच्छ ( अबलम् ) जीर्ण (जालम् ) जालको (छित्वा ) नाश करके ' स्वेच्छा से विचरता है' (इव ) ऐसे ही (धौरेयशीलाः ) प्रबल है धर्म क्रिया में स्वभाव जिनका (तपसा ) तपस्या ( उदाराः ) प्रधान (धीराः) बुद्धिमान (कामगुणान् ) कामभोगों को (प्रहाय) त्याग कर ( यस्मात् ) 'मोक्ष' जाने के लिये ( भिक्षाचर्या ) भिक्षा वृत्तिको (चरन्ति ) प्राप्त करते हैं ॥ ३५ ।। भावार्थ हे प्रियपत्नि ! जैसे रोहित जातिका मच्छ जीर्ण जाल को अपनी तीक्ष्ण पूछ ले काटकर जल में स्वेच्छा से विचरता है । ऐसे ही प्रधान तप के धारी क्रिया में उत्कृष्ट भाव है जिनके ऐसे वे भोग रूप जाल को नष्ट कर संयम मार्ग को जा रहे हैं। ३५।।.. मूल-नहेव कुंचा समइकमंता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। पति पुत्ता य पई य मझ, ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्का ।। ३६ ॥ छाया-नमसीव क्रौंचाः समतिकामन्त, स्ततानि जालानि दलयित्वा हंसाः । परियन्ति पुत्रौ च पतिश्च मम, तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका ॥ ३६ ।। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) अन्वयार्य-(नभसि) आकाश में (क्रौचाः) क्रौंच पक्षी (इव ) जैसे (समतिक्रामन्तः) एक देश को उलंघन करजाते है (च) और ( हंसाः ) हंस पढ़ी (तता. नि ) विस्तीर्ण (जालानि) जालको ( दलयित्वा ) काट कर ' स्वेच्छा से विचरते है ऐसे ही' (पुत्रौ) दोनों पुत्र ( च ) और ( मम ) मेरे ( पतिः ) प्राणनाथ (तान् ) उन भोगों को त्यागकर संयम लेने को ' (परियन्ति) जा रहे है ( एका) एकेली (कथं) कैसे (न) नहीं ( अनुगमिष्यामि ) साथ जाऊँगा। ३६ ॥ भावार्थ-हे प्राणपते ! आपका सद्बोध मेरे कलेजे को पार कर गया है । अहा हा खूबही अच्छा दृष्टान्त दिया । जैसे क्रौंच पक्षी एक देश को उलंघन कर दूसरे देश को चला जाता है । हंस लम्बी चौडी जालको काटकर स्वेच्छा से विचरता है । ऐसे ही दोनो पुत्र और आप मोह माया रूप जालको काटकर संयम मार्गको प्राप्त करने के लिये जा रहे हैं तब मै एकेली क्या संयम मार्गको प्राप्त करने के लिये साथ नहीं श्राऊँगा ॥ ३६॥ मूल-पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं, रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ ३७॥ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-पुरोहितं तं ससुतं सदारं, श्रुत्वाऽभिनिष्क्रम्य प्रहाय भोगान् । कुटुंवसारं विपुलोत्तमं तं, राजानमभीक्ष्णं समुवाच देवी ॥ ३७॥ अन्वयार्थ-(ससुतम् ) पुत्र सहित (सदारम् ) स्त्री सहित (तम्) वह (पुरोहितम् ) पुरोहित (भोगान्) भोगों को (प्रहाय) परित्याग कर ( अभिनिष्क्रम्य ) संसार से निकलते हैं 'ऐसा' (श्रुत्वा) सुनकर (विकुलोत्तमम्) प्रचूर प्रधान (कुटुम्बसारं ) धन धान्यादि ग्रहण करने वाले (तम्) उस । राजानम् ) राजा को (देवी) पटराणी ( अभीक्षणम् ) वार वार ( समुवाच ) कहने लगी ॥३७॥ ___भावार्थ-पुरोहित और उस की स्त्री ये दोनों पुत्रों के वैराग्यमयी वाक्यों को श्रवण कर पुरोहित व स्त्री और दोनों पुत्र चारों ही व्यक्ति भोगों को परित्याग कर रहे हैं। और क्रोड़ों रूपयों की सम्पत्ति को ज्यों की त्यों घर पर छोड़ कर संघम मार्ग को ग्रहण करने के लिये जा रहे हैं । यह खबर सुनते ही गजा उसकी सर्व सम्पत्ति राज्य भण्डार में डलवान का अनुचरो को हुक्म दे दिया तदनु यह सूचना दासी द्वारा राणी को मालूम होते ही अपने प्राण पति नरेश के पास श्रा कर यों कहने लगी ॥ ३७॥ मूल-वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिनो । माहणेण परिञ्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ॥ ३८॥ For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५५ ) छाया - वान्ताशी पुरुषाराजन् न सोभवति प्रशंसितः । ब्राह्मणेन परित्यकं धनमादातुमिच्छसि ||३८|| अन्वयार्थ - [ राजन् ] हे राजन् [ वान्ताशी ] वमन किये हुवे पदार्थ को खाने वाला [ पुरुषः ] मनुष्य [ सः ] वह [प्रशंसितः ] प्रशंसा पात्र [न] नहीं [ भवति ] होता हे [ ब्राह्मणेन ] ब्राह्मणने [ परित्यक्तं ] त्यागा हुआ [ धनम् ] धन [ श्रादातुम् ] लेने को [ इच्छसि ] इच्छा करते हो ।। ३८ !! भावार्थ- हे प्राणनाथ नृपते ! जैसे किसी पुरुष को उष्टी हुई उसी ही उष्टी को कुत्ते काग के सिवाय वही पुरुष पुनः भक्षण करना चाहे तो वह क्या प्रशंसनीय हो सकता है ! कभी भी नहीं । ऐसे ही हे नाथ आप जो धन ब्राह्मण को संकल्प कर चुके । उसी को श्राप लेना स्वीकार कर रहे हैं । यह कहां तक योग्य और उचित है । आप स्वयं हृदय पर हाथ धर कर इस बात को कुछ देर के लिये सोचें ॥ ३८ ॥ मूल - सव्यं जगं जइ तुहं, सव्वं वापि धणं भवे । सव्वंपि ते अपजत्तं, नेव ताणाय तं तवं ॥ ३६ ॥ छाया - सर्वजगद्यदि तत्र, सर्वं वापि धनं भवेत् । सर्वमपि तवा पर्याप्तत्र त्राणाय तत्तव || ३६ ॥ अन्वयार्थ – [ यदि सर्वम् ] यदि सर्व [ जगत् ] लोक [ चापि ] और भी [ सर्वम् ] सर्व [ धनम् ] धन [ तव ] For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुम्हारे [भवेत् ] हो जावे 'तदपि' [तव] तुम्हारे [ सर्वमपि] सर्व भी [अपर्याप्तम् ] अपूर्ण है [ तत् वह ' सब जगत् व धन' [तव ] तुम्हारे [त्राणाय] रक्षा के लिये [नैव] नहीं है ॥ ३६॥ भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! यदि आप को सारा जगत् का राज्य मिल जावे और पृथ्वी भर का सब धन हस्तगत हो जावे । तदपि श्राप की इच्छा कभी भी परिपूर्ण नहीं होगी । ज्यो ज्यो धन व राज्य बड़ता जायगा त्यो त्यो इच्छा बड़ती ही जायगी फिर वही राज्य और धन अन्त समय में कुछ भी काम आने वाले नहीं हैं। और न वे यमराज की दी हुई यातना में रक्षा कर सकेंगे ॥३६॥ मूल-मरिहिसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहायं । एको हु धम्मो नरदेव ताणं, न विज्जइ अज्जमिहेह किंचि ॥४०॥ छाया-मरिष्यसि राजन् यदा तदा वा, मनोरमान् कामगुणान् विहाय । एक एव धर्मो नरदेव त्राणं, न विद्यतेऽन्यदिहेह किञ्चित् ॥४०॥ अन्वयार्थ-[राजन् ] हे नरेश [यदा तदा वा] जब तब [मनोरमान् ] मनोहर [कामगुणान् ] कामभोगों को [विहाय ] छोड़ कर [ मरिष्यसि] मरोगे [नरदेव] For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगु चरित्र दोनों लडकों को ढूंढने के लिए भृगु पुरोहित और उनकी स्त्री दोनो गाँवसे निकल कर जंगल की और जा रहे हैं । और लड़के दोनों सामने आरहे है । Lakshmi Art, Bombay, 8. For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ हे मनुष्यों के देव [ एक एव ] एक ही [ धर्मः ] धर्म [ त्राणम् ] शरण भूत ' होगा ' [ अन्यत् ] दूसरा [ इहेह ] यहाँ पर [ किञ्चित् ] कोई भी [न] नहीं [ विद्यते ] हैं ॥ ४० ॥ भावार्थ हे राजन् ! इन प्रधान काम भोगों को छोड़ कर किसी एक समय में आखिर मरना पड़ेगा अमर हो कर कोई नहीं आया है | देखिये कैसे २ चक्रवर्ति राजा, जो कि मरना जानते ही न थे वे भी दुनिया से चल बसे, सब उन के ऐश आराम की चीजें यहीं धरी रह गई हैं। पर भव में माता, पिता, भगिनी, औरत पुत्र, धन, राज, कोट, किला कोई भी चीज़ शरणभूत नहीं हो सकेंगे । केवल एक धर्म ही अवश्य आप की यातना में हाथ बटायेगा ॥ ४० ॥ राजा अपनी प्रियपत्नि के मार्मिक वचनों को सुनते ही चमक कर बोला, रानी ठेर कुछ ठेर, बोलने में इतनी जल्दी मत कर | क्या तेरा चित्त व्याकुल तो नहीं हो गया है। राज्य में धन श्राता है वह सब ऐसा ही है । ये तेरे सब रत्न जड़ित चन्द्रहार आदि आभूषण इसी धन के बने हुए हैं। जैसा तू मुझे उपदेश कर रही है तो क्या तू अमर हो कर आई है यह तो एक वह बात हुई जैसे किसी कवि ने कहा कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे " हे राणी पहिले तो राज्य छोड़ साध्वी बन जा फिर सुके उपदेश करना । इस प्रकार अपने प्राणेश्वर के वचन सुनते ही राजा से राणी यो बोली || " ......39 मूल - नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा, संतापछिन्ना चरिस्सामि मोणं । For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा, परिग्गहारम्भनियत्तदोसा ।। ४१ ॥ छाया-नाहं रमे पक्षिणि पंजरे इत्र, छिन्नसन्ताना चरिष्यामि मौनम् । अकिंचना ऋजुकृता निरामिषा, परिग्रहारम्भदोषनिवृता ।। ४१॥ अन्वयार्थ-[पंजरे ] पिंजरे में [ पक्षिणीव ] पक्षिणी के जैसे [अहम् ] मैं [न] नहीं [ रमे] आनन्द पाती हूँ अत एव' [अकिंचना] द्रव्य रहित [ऋजुकृता] सरल [निरामिषा] विषय रहित [अारम्भपरिग्रहदोषनिवृत्ता] प्रारम्भ परिग्रह दोषों से विरक्त हो [ मौनम् ] साधुवृत्ति को [चरिष्यामि ] अङ्गीकार करूंगा ॥४१॥ भावार्थ-हे प्राणनाथ ! जैसे पक्षिणी पिंजरे में खान पान श्रादि सब सुविधाएं होते हुए भी दुःख अनुभव करती हैं। ऐसे ही इस राज्य और भव रूप पिंजरे में मैं भी श्रानन्द नहीं पा रही हूँ। यदि आप मुझे श्राशा देदे तो मैं स्नेह रूप सन्तति को छोड़ कर, विषय वासना से मुँह मोड़ दूं। सब ये हीरे पन्ने से मड़ित गहने शरीर से उतार कर सरल स्वभाविका बनें । और आरम्भ परिग्रह से उत्पन्न होने वाले दोषों को परित्याग कर धार्यिका अर्थात् साध्वी बनूंगी ॥ ४ ॥ मूल-दवग्गिणा जहा रगणे, For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) दज्झमाणेसु जंतुसु। अन्ने सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया ॥४२॥ छाया-दवाग्निना यथारण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदयन्ते, रागद्वेषवशंगताः ॥४२॥ अन्वयार्थ-[यथा] जैसे [दवाग्निना] दावानल कर के [जन्तुषु] प्राणि [ दह्यमानेषु] जलते हुवे [अरण्येषु ] बन में [रागद्वेषवशंगताः] रागद्वेष के वशीभूत हुए [अन्ये] दूसरे [सत्त्वाः ] प्राणि [प्रमोदयन्ते ] आनन्दित होत है।॥ ४२ ॥ ___भावार्थ-हे नाथ ! जैसे किसी एक जंगल में दावानल कर के हिरन खरगोश आदि मूक प्राणी जल रहे थे, उस समय दावानल के निकटवर्ति दूसरे हिरन स्वरगोश आदि जानवर जिन के समीप अभी तक वहाँ अग्नि पहुची नहीं, वे सभी प्राणी उस घटना को देख कर बड़े खुशी मनाते हैं। पर वे मूद यों नहीं जानते हैं कि जो घटना वहाँ हो रही है वही घटना हमारे पर भी क्षण मात्र में घटने वाली है ॥ ४२ ॥ मूल-एवमेव वयं मूढा, कामभोगेम मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो, रागद्दोसग्गिणा जगं ॥ ४३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) छाया - एवमंत्र वयं मूढा, कामभोगेषु मूर्च्छिताः । दह्यमानन्न बुध्यामहे, रागद्वेषाग्निना जगत् ||४३|| अन्वयार्थ - ( एवमेव ) इसी तरह से ( वयम् ) अपन भी ( मूढाः) मूढ हो रहे हैं ' जो कि' (कामभोगेषु) कामभोगों में ( मूर्च्छिता) मूर्च्छित होते हुए (रागद्वेषाग्निना राग, द्वेष रूप करके (दह्यमानं) जलते हुए ( जगत् । संसार को न नहीं (बुध्यामहे ) जानते हैं || ४३ || भावार्थ- हे प्राणेश्वर ! जैसे वे प्राणी ओरों को जलते हुए देख कर आनन्दित होते हैं । इसी प्रकार अपन भी कैसे मूर्ख हैं जो कि काम भोगों में मूच्छित हो कर राग द्वेष रूप अग्नि कर के सारे जगत को जलते हुए देख कर अपन ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं । जैसे वे मर रहे हैं और उनके लिये जो घटना हो रही है वह एक रोज अपने पर भी होगी ॥ ४३ ॥ मूल - भोगे भोचा वमित्ता य, लहुभूयविहारिणो । आमोयमाणा गच्छति, दिया कामकमा इव ॥ ४४ ॥ छाया - भोगान् भुक्त्वा वान्त्वा च, लघुभूतविहारिणः । आमोदमाना गच्छन्ति, द्विजाः कामक्रमा इव ॥ ४४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६१ ) अन्वयार्थ ---(भोगान्) भोगों को (भुक्त्वा ) भोग कर (च) और 'उत्तकाल में (वान्त्वा) त्याग कर (लघुभूतविहारिणः) इलका विहार (कामक्रमाः) ययेच्छा पूर्वक (द्विजा इव) पक्षि के जैसे यदा ब्राह्मण के जैसे (अामोदमानाः) आनन्दित होते हुए (गच्छन्ति) विचरते है ।। ४४ ॥ भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! अपन संसार में सब ऐश आराम कर चुके हैं कोई भी बात की कमी नहीं रही है। अत एवं अब इन्ह भोगों को परित्याग कर द्रव्य से भाव से हलके वायु के समान यथेच्छा पूर्वक आनन्दित होते हुवे संयम मार्ग में विचरें। जैसे पक्षि यद्वा गुपुरोहित और उसकी स्त्री व दोनों पुत्र संसार को परित्याग कर संयम मार्ग में विचरते है ॥ ४०॥ मूल-इमे य बद्धा फंदंति, मम हत्थऽजमागया। वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे ॥४५॥ छाया-इमे च बद्धाः स्पन्दंते, मम हस्तमाय्ये आगताः। वयश्च सक्ताः कामेषु, भविष्यामोयथेमे ।। ४५ ॥ अन्वयार्थ (आर्य) हे आर्य (बद्धाः) सुरिक्षत (इमे) ये भोग (मम) मेरे (च) और 'उपलकणसे तुमारे' (हस्तम् ) For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्तगत (आगताः) हो रहे हैं ' वे कैस है ' (स्पन्दन्ते) अस्थिर है ' तदपि (वयं) अपन ( कामेषु) काम भोगों में (सक्ताः ) आसक्त हो रहे है ' इसलिये' (इमे) पुरोहितादिके ( यथा ) जैसे (भविष्यामः ) होवे ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे श्रार्यपते ! भोगोपभोग की सामग्री प्रापको और मेरे को जो मिली है उसको अनेक उपाय करके सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं . पर वे आखिर अस्थिर है । तदपि उन भोगों में प्रासक होते हुए तनिक भी विचार नहीं करते हैं कि भोगों को अपन नहीं छोड़ेगे तो भोग अपने को उत्तर देदेगें । इस मे तो यही अच्छा है कि पहले ही उन्ह भोगों को छोड़ कर पुरोहितादि के जैसे अपन भी साधुवृत्ति ग्रहण करे ॥ ४५ ॥ मूल-सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं निरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामो निरामिसा ॥ ४६॥ छाया--सामिष कुललं द्रष्ट्वा, बाध्यमानं निरामिषम् । आमिषं सर्वमुज्झित्वा, विहरिष्यामि निरामिषाः॥४६॥ अन्वयार्थ-(सामिषम् ) मांस सहित (बाध्यमानं) पीड़ित (कुललम् ) गृध पक्षिकों ' और ' (निरामिषम् ) मांस रहित गृध पक्षिको 'सुख अवस्था में ' ( दृष्ट्वा ) देख कर (सर्वम् ) सम्पूर्ण (आमिषम् ) ' धन धान्य रूप For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६३ ) श्रामिष ( उज्झित्वा ) त्याग कर ( निरामिषाः ) आमिष रहित होती हुई ( विहरिष्यामि) गमन करूंगी ||४६ ॥ हे प्राणेश्वर ! किसी एक गुद्ध पक्षि के पास मांस की बांटी देख कर अन्य पक्षि उसे पीड़ित कर देते हैं । और जिस के पास मांस वगैरा कुछ भी नहीं होता है वह आनन्द में निर्भयता के साथ रहता है । इन दोनों ही अवस्था में उस पक्षिको देख कर मुझे बड़ा विचार आता है कि अपने पास भी धन, भण्डार, राज्य, भोग रूप मांस की बोटी है। उसकी रक्षा के लिये रात और दिन चिन्ता बनी रहती है । कोई धन चोर कर न लेजावे, कोई राज्य के उपर अमला न करले । इत्यादि अनेक दुःखों से पीड़ित हो रहे हैं । इस से यह अच्छा है कि जिस गृध पक्षि के पान मांस की बोटी नहीं है वह निर्भयता से रहता है । ऐसे ही हे प्राण-पते मैं भी राज्य भोग रूप मांस बोटी को परित्याग कर संयम मार्ग में बिचरूगीं ॥ ४६ ॥ मूल - गिद्धोवमे उ नचाएं, कामे संसारवड्ढणं । उरगो सुवरण पासेव, संकमाणो तणुं चरे ॥ ४७ ॥ छाया - गृद्धोपमास्तु ज्ञात्वा कामान् संसारवर्द्धनान् । उरग: सौंप पार्श्व इव शङ्कमानस्तनुञ्चरेत् ॥४७॥ अन्वयार्थ - ( संसारवर्द्धनान् ) संसार वर्धक ( कामान् ) काम भोगों को (गृद्धोपमास्तु) गृध पक्षि के समान (ज्ञात्वा ) नानकर ( सौपर्णेयपार्श्वे ) गरुढ के पास में ( उरगः ) सर्प के ( इब ) जैसे (शङ्कमानः ) संकुचित होता हुआ (तनुम् ) मन्दगति से ( चरेत् ) जाता है ॥ ४७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४) भावार्थ-हे नाथ ! गृध पक्षि के समान काम भोगों को संसार वर्धक जामकर परित्याग कर दें । जैसे सर्प गरुड़ से भयभीत होता हुआ उसके पास से कैसा चंपत हो जाता है । ऐसे ही अपन भी इन्ह काम भोगों से चंपत हो कर संयम स्थान में विचरे ॥४७॥ मूल--नागोव्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। एयं पत्थं महारायं, उसुयारित्ति मे सुयं ॥४८॥ छाया--नाग इव बन्धनञ्छित्वात्मनो वसतिं व्रजेत् । एतत्पथ्यं महाराज, इक्षुकार इति मे श्रुतम् ।। ४८ ।। अन्वयार्थ--(इतुकार ) इनुकार नाम के (महाराज) हे महाराज (नाग इव ) हाथी के जैसे (बंधनम् ) बन्धन को (छित्वा ) तोड़ कर (अात्मनः) आत्मा के ( वसतिम् ) निवास स्थान को (व्रजेत् ) बावे (एतत् ) यह (पथ्यम् ) हितकारी मार्ग को' (इति मे) मै ने (श्रुतम् ) श्रवण किया था ॥४८॥ भावार्थ-हे इक्षुकार नाम से सुशोभित महाराज ! जैसे हाथी अपना मजबूत बंधन भी जैसे तैसे तोड़ कर बंध्या अटवी को चला जाता है। ऐसे ही आत्मा भी जन्म जन्मान्तर में किये हुए कर्म रूप बंधन को संयम रूप कैने से तोड़ कर शुद्ध प्रात्मा के स्थान पर पहुँच जाती है । उपरोक्त मार्ग मैं ने सुगुरू द्वारा श्रवण किया है इस लिये श्नपन भी जन्म जन्मान्तर में किये हुए कर्म For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बन्धन को तोड़ कर मोक्ष स्थान को प्राप्त करें। इस प्रकार वैराग्य भरी बातें राणी की सुन कर राजा को भी वैराग्य हो गया ।।४।। मूल-चइत्ता विउलं रज्ज, कामभोगे य दुच्चए। निविसया निरामिसा, निन्नेहा निप्परिग्गहा ॥ ४६ ॥ छाया-त्यक्त्वा विपुलं राज्यं, कामभोगांश्व दुस्त्यजान् । निर्विषयौ निरामिषौ, निःस्नेहौ निष्परिग्रहौ ॥ ४६॥ अन्वयार्थ-(विषुलम् ) लम्बा चौड़ा (राज्यम् ) राज्यको (च) और (दुस्त्यजान ) त्यागना कठिन ऐसे (कामभोगान् ) कामभोगों को (त्यक्त्वा ) छोड़कर (निर्विषयौ) विषयवासनादि रूप (निरामिषौ) आमिष करके रहित (निःस्नेही ) स्नेह (निष्परिग्रहौ) परिग्रह रहित 'होवे'४६॥ भावार्थ-राजा और रानी दोनों लम्बी चौड़ी सीमावाला राज्य और दुस्त्याज्य काम भोगों को छोड़कर विषयवासना, धन धान्य रूप आमिष, स्नेह रूप प्रतिबन्ध प्रारम्भ परिग्रह श्रादि से रहित हुए ॥४६॥ मूल-सम्मं धम्मं वियाणिता, चेचा कामगुणे वरे । तवं पगिझाहक्खायं, घोरं घोरपरकमा ॥ ५० ॥ For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-सम्यक् धर्म विज्ञाय, त्यक्त्वा कामगुणान् वरान् । तपःप्रगृह्य यथाख्यातं घोरं घोरपराक्रमौ ॥५०॥ अन्वयार्थ-(सम्यक् ) शुद्ध (धर्मम् ) धर्म को (विज्ञाय ) जान कर ( वरान् ) प्रधान ( कामगुणान् ) काम भोगों को ( त्यक्त्वा ) छोड़कर ( यथाख्यातम् ) जिस प्रकार का प्ररूपित (घोरम् ) दुष्कर (तपः) तप को (प्रगृह्य ) अङ्गीकार कर (घोरपराक्रमो) ' कर्मों का नाश करने में ' अत्यन्त पराक्रम करें ॥ ५० ॥ भावार्थ-अव्याप्त, अतिव्याप्त, असंभव तीनों दोषों कर के रहित शुद्ध धर्म को राजा और रानी दोनों ने पहिचान कर हस्तगत प्रधान काम भोगों का परित्यागन कर दिया । और अहत् भगवताने जिस प्रकार प्रतिपादन किया है उसी प्रकार तुष्कर तप प्रत को अङ्गीकार कर रौद्र कौका नाश करने में अत्यन्त पराक्रम करने को प्रवर्त हुए ।। ५० ॥ मूल-एवं ते कमसो बुद्धा, सव्वे धम्मपरायणा । जम्ममच्चुभउब्विग्गा, दुक्खस्संतगवेषिणो ५१ छाया-एवं ते क्रमशो बुद्धाः, सर्वे धर्मपरायणाः । जन्ममृत्युभयोद्विना, दुःखस्यान्तगवेषिणः ॥५१॥ अन्वयार्थ --(एवम् ) इस प्रकार (ते) वे (सब्वे) सब छःओं (जन्ममृत्युभयोद्विग्नाः ) जन्ममृत्यु के भय से उद्वेग पाते हुए (क्रमशः) अनुक्रम से (बुद्धाः ) तत्वज्ञ हुए For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगु चरित्र वैराग्य पाकर भृगु पुरोहित और उनकी स्त्री एवम् दोनो लडके क्रोडों की सम्पति को ज्या की त्यों छाड़ कर मुनि वृत्ति ग्रहण करने के लिये जा रहे हैं। और आई हुई धन की गाडियोंको देखकर रानी अपने राजा को कह रही है कि धन सम्पति नश्वर है। For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only