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( ३६ ) अझत्थहेडं निययऽस्स बंधो,
संसारहेडं च वयंति बंधं ॥ १६ ॥ छाया-नेन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावादमूर्तभावादपि च भवति नित्य । अध्यात्महेतुं नियतोऽस्य बन्धः,संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ।।१६॥
अन्वयार्थ-( अमूर्तभावात् ) ' आत्मा की' अरूप भाव होने से ( इन्द्रियग्राह्यः ) इन्द्रियों द्वारा ग्रहण ( न ) नहीं हो सकता ( च ) और ( अपि) भी (अमूर्त भावात् ) अरूप होने से ( नित्यः ) हमेशाका (भवति) होता है (अध्यात्महेतुं ) आन्तरिक दुर्गुणों का हेतु ( अस्य ) उसके (नियतः) निश्चय ( बन्धः ) बन्धन है (च) और ( संसारहेतुं ) संसार में परिभ्रमण रूप ' हेतु ( बन्धम् ) बन्धन ( वदन्ति ) ' तत्त्वज्ञ' कहते हैं ॥ १६ ॥
भावार्थ-हे पिता श्री ! शरीर नाश होने पर प्रात्मा भी नाश हो जाती है यह बात श्रापकी तत्वज्ञ तो नहीं मान सकते हैं । क्या यह अरूपी आत्मा इन्द्रियों द्वारा पकड़ी जाती है ! कभी भी नहीं, अमूर्तिमान प्रारमा कभी नाश नहीं होती । यदि तुम कहोगे कि इस रूपी शरीरने अरूपी श्रात्मा का बन्धन कैसे कर रखा है। उत्तर-जैसे आकाश अरूपी है पर घट के आश्रित रहे हुवे आकाश का बन्धन हो ही जाता है उसे घटाकाश कहेंगे । परन्तु घटका नाश होने पर श्राकाशका नाश कभी नहीं होता है । इसी तरह
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