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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२) तमेवमेव लालप्यानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः ॥ १५ ॥ (इदम् ) यह 'स्वर्ण (मे) मेरे (अस्ति) है (च) और (इदम्) यह 'हीरे पन्ने' (न) नहीं (अस्ति ) है (च) और (इदम्) यह · मकान ' (मे) मेरेको ( कृत्यम् । करने योग्य ( च ) और (इदम् ) यह ' व्यापार ' (अकृत्यम् ) नहीं करने योग्य है (एवमेव ) इस प्रकार (लालप्यमानं) 'दिल' ललचाता है (हराः) रात दिन रूप समयका' चौर (तं) उस पुरुषको (हरन्ति) 'जन्म जन्मान्तरको प्राप्त करता है (इति) संपूणार्थ (प्रमादः ) 'तब आलस्य (कथं) क्यों किया जावे' ॥१५॥ हे पिता श्री ! इस संसार में मनुष्य मात्र इस ध्यान में बैठे हुए हैं कि इतना तो मेरे पास है, इतने धनकी और श्रावश्यकता है । मेरे अमुक व्यापारतो करने योग्य है । और अमुक व्यापार नहीं करने योग्य है । इसी फिक्र में रात दिन लगा रहता है , पर यह नहीं जानता है कि रात दिन समय रूप चौर जाम जन्मान्तरों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है । ऐसी अवस्था में हमें धर्म कार्य में प्रमाद करना ठीक नहीं है ॥ १५॥ मुल-धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं क़ए तप्पइ जस्स लोगो, तं सवसाहीणमिहेद तुभं ।। १६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020382
Book TitleIkshukaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchandji Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashak Samiti
Publication Year1927
Total Pages77
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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