SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६३ ) श्रामिष ( उज्झित्वा ) त्याग कर ( निरामिषाः ) आमिष रहित होती हुई ( विहरिष्यामि) गमन करूंगी ||४६ ॥ हे प्राणेश्वर ! किसी एक गुद्ध पक्षि के पास मांस की बांटी देख कर अन्य पक्षि उसे पीड़ित कर देते हैं । और जिस के पास मांस वगैरा कुछ भी नहीं होता है वह आनन्द में निर्भयता के साथ रहता है । इन दोनों ही अवस्था में उस पक्षिको देख कर मुझे बड़ा विचार आता है कि अपने पास भी धन, भण्डार, राज्य, भोग रूप मांस की बोटी है। उसकी रक्षा के लिये रात और दिन चिन्ता बनी रहती है । कोई धन चोर कर न लेजावे, कोई राज्य के उपर अमला न करले । इत्यादि अनेक दुःखों से पीड़ित हो रहे हैं । इस से यह अच्छा है कि जिस गृध पक्षि के पान मांस की बोटी नहीं है वह निर्भयता से रहता है । ऐसे ही हे प्राण-पते मैं भी राज्य भोग रूप मांस बोटी को परित्याग कर संयम मार्ग में बिचरूगीं ॥ ४६ ॥ मूल - गिद्धोवमे उ नचाएं, कामे संसारवड्ढणं । उरगो सुवरण पासेव, संकमाणो तणुं चरे ॥ ४७ ॥ छाया - गृद्धोपमास्तु ज्ञात्वा कामान् संसारवर्द्धनान् । उरग: सौंप पार्श्व इव शङ्कमानस्तनुञ्चरेत् ॥४७॥ अन्वयार्थ - ( संसारवर्द्धनान् ) संसार वर्धक ( कामान् ) काम भोगों को (गृद्धोपमास्तु) गृध पक्षि के समान (ज्ञात्वा ) नानकर ( सौपर्णेयपार्श्वे ) गरुढ के पास में ( उरगः ) सर्प के ( इब ) जैसे (शङ्कमानः ) संकुचित होता हुआ (तनुम् ) मन्दगति से ( चरेत् ) जाता है ॥ ४७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020382
Book TitleIkshukaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchandji Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashak Samiti
Publication Year1927
Total Pages77
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy