Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 75
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-सम्यक् धर्म विज्ञाय, त्यक्त्वा कामगुणान् वरान् । तपःप्रगृह्य यथाख्यातं घोरं घोरपराक्रमौ ॥५०॥ अन्वयार्थ-(सम्यक् ) शुद्ध (धर्मम् ) धर्म को (विज्ञाय ) जान कर ( वरान् ) प्रधान ( कामगुणान् ) काम भोगों को ( त्यक्त्वा ) छोड़कर ( यथाख्यातम् ) जिस प्रकार का प्ररूपित (घोरम् ) दुष्कर (तपः) तप को (प्रगृह्य ) अङ्गीकार कर (घोरपराक्रमो) ' कर्मों का नाश करने में ' अत्यन्त पराक्रम करें ॥ ५० ॥ भावार्थ-अव्याप्त, अतिव्याप्त, असंभव तीनों दोषों कर के रहित शुद्ध धर्म को राजा और रानी दोनों ने पहिचान कर हस्तगत प्रधान काम भोगों का परित्यागन कर दिया । और अहत् भगवताने जिस प्रकार प्रतिपादन किया है उसी प्रकार तुष्कर तप प्रत को अङ्गीकार कर रौद्र कौका नाश करने में अत्यन्त पराक्रम करने को प्रवर्त हुए ।। ५० ॥ मूल-एवं ते कमसो बुद्धा, सव्वे धम्मपरायणा । जम्ममच्चुभउब्विग्गा, दुक्खस्संतगवेषिणो ५१ छाया-एवं ते क्रमशो बुद्धाः, सर्वे धर्मपरायणाः । जन्ममृत्युभयोद्विना, दुःखस्यान्तगवेषिणः ॥५१॥ अन्वयार्थ --(एवम् ) इस प्रकार (ते) वे (सब्वे) सब छःओं (जन्ममृत्युभयोद्विग्नाः ) जन्ममृत्यु के भय से उद्वेग पाते हुए (क्रमशः) अनुक्रम से (बुद्धाः ) तत्वज्ञ हुए For Private And Personal Use Only

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